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शतपति की गवाही —
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प्रभु यीशु को क्रूस पर प्रातः ९ बजे चढ़ाया गया था। दोपहर ३ बजे‚ उन्होंनें प्राण त्यागे। यह असाधारण बात थी कि क्रूस पर चढ़ाये जाने पर कोई इतनी जल्दी दम तोड़ दे। तौभी हमें इस पर विस्मय नहीं होना चाहिये। आखिरकार‚ वहां जिनको क्रूस पर चढ़ाया गया था‚ उसमें से प्रभु यीशु को एक दिन पूर्व मरने की हद तक कोड़ों से पीटा गया था। उनको क्रूस पर चढ़ाये जाने से पहिले‚ पीलातुस ने भीड़ को समझाने का प्रयास किया था कि उन्हें कोड़े की सजा देना ही पर्याप्त होगा। ‘‘किसी भी रीति से कोड़े मारे जाना कोई हल्की सजा नहीं होती थी। रोमी लोग पहिले व्यक्ति को वस्त्रहीन करते थे। उसके हाथ एक खंभे से सिर के उपर तक बांध दिये जाते थे। कोड़ा (चाबुक) चमड़े के टुकड़े से बना होकर, उसके भीतर हडिडयों के टुकड़े गूंथे हुए होते थे। कोड़े मारने वाले दोनो ओर खड़े होते थे कि बारी बारी से कोड़े से पीट सके।" (फेंक इ गैबेलीन‚ डी डी‚ जनरल एडिटर‚ दि एक्सपोजिटर्स बाइबल कमेंटरी, जोंदरवेन पब्लिशिंग हाउस, १९८४‚ वॉल्यूम ८‚ पेज ७७५‚ मरकुस १५:१५ पर व्याख्या)
कोड़े मारे जाने का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है‚ उसकी व्याख्या व वर्णन — निम्न प्रकार से एक मेडीकल डॉक्टर द्वारा की गयी है‚
भारी कोड़ा प्रभु यीशु के कंधे‚ पीठ और पैरों पर पूरी ताकत से बार बार मारा जाता है। प्रारंभ में वजनदार कांटे केवल चमड़ी को भेदते हैं। जब लगातार प्रहार जारी रहता है‚ तो वे चमड़ी के नीचे के मांस तंतु को गहरा काटते जाते हैं। पहिले तो केशिकाओ व शिराओं से रिसाव प्रारंभ होता है‚ उसके बाद नीचे की मांसपेशियों से रक्त की तेज धार फूट पड़ती है........अंततः पीठ की चमड़ी लंबे रिबन के आकार में लटकने लगती है‚ (पीठ) का संपूर्ण हिस्सा न पहचाने जाने योग्य‚ नोचे गये उतकों का रक्त रंजित पिंड बनकर रह जाता है (सी टूमेन डेविस‚ एम डी‚ क्रूसीफिक्शन ऑफ जीजस। दि पैशन फ्राम ए मेडीकल पाईंट ऑफ व्यू‚ एरीजोना मेडीसिन‚ (संख्या ३)‚ मार्च १९६५ पेज १८५)
डॉ गैबेलीन की व्याख्या कहती है कि‚ ‘‘इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि रोमी सैनिकों द्वारा कोड़े खाये व्यक्ति मुश्किल से ही जी पाते थे" (गैबेलीन‚ उक्त संदर्भित)। वह शतपति और उसके अधीन सैनिक — जो क्रूस पर चढ़ाये जाने की सजा देने के लिये ठहराये गये थे — को इस बात का कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि इतनी दर्दनाक यातना के बाद यीशु ने क्रूस पर चढ़ाये जाने के कुछ घंटों बाद दम तोड़ दिया। जिस तरह से यीशु दम तोड़ते हैं‚ वे तो इस बात से हैरान थे!
जब यीशु ने दम तोड़ा‚ बहुत सी बातें घटीं। पूरे देश में तीन घंटे तक अंधेरा छाया रहा (मत्ती २७:४५) । उनके मरने के कुछ क्षणों बाद ही भीषण भूकंप आया जिसने मंदिर के परदे को उपर से लेकर नीचे तक दो भागों में विभक्त कर डाला: धरती डोल गई और चटानें तड़क गईं" (मत्ती २७:५१)। भूकंप और अंधकार दोनों का बड़ा असर उन पर पड़ा होगा‚ क्योंकि मत्ती की पुस्तक में लिखा हुआ है‚
‘‘तब सूबेदार और जो उसके साथ यीशु का पहरा दे रहे थे‚ भुईंडोल और जो कुछ हुआ था‚ देखकर अत्यन्त डर गए‚ और कहा‚ सचमुच ये परमेश्वर के पुत्र थे" (मत्ती २७:५४)
उदारवादी व्याख्याकार कहते हैं कि रोमी शतपति का कहने का केवल यह तात्पर्य था कि यीशु सब पूजे जाने वाले देवताओं में से किसी एक देवता के समान थे। किंतु ये व्याख्याकार यह समझाने में असफल रहे हैं कि उस शतपति ने महायाजक और अपने सैनिकों एवं यहां तक कि चोरों को भी यह कहते हुए सुना था‚
‘‘उन्होंने परमेश्वर का भरोसा रखा है‚ यदि वह उन्हें चाहता है‚ तो अब इन्हें छुड़ा ले क्योंकि इन्होंने कहा था कि ‘‘मैं परमेश्वर का पुत्र हूं।" इसी प्रकार डाकू भी जो उसके साथ क्रूसों पर चढ़ाए गए थे उस की निन्दा करते थे।" (मत्ती २७:४३—४४)
तो शतपति और उसके सारे सैनिकों ने महापुरोहित और यहूदी चोरों को बार बार यह दोहराते हुए सुना था कि‚ ‘‘यीशु कहते थे कि‚ मैं परमेश्वर का पुत्र हूं।" (मत्ती २७:४३)। शतपति और उसके सैनिकों के पास इस बात पर विचार करने के लिये पूरा दिन था कि यहूदी परिवेश में परमेश्वर के पुत्र कहने का क्या तात्पर्य होता है। वास्तव में‚ देखा जाये तो इसके पूर्व पूरे सप्ताह भर यरूशलेम में परमेश्वर के पुत्र नाम को निसंदेह उन्होंने अनेकों बार सुना होगा। डॉ लैंस्की ने बिल्कुल सही कहा था‚
बुद्धिसंपन्न और आधुनिक टिप्पणियां शतपति की स्वीकारोक्ति कि यीशु परमेश्वर के पुत्र थे‚ को मानने से इंकार करती हैं क्योंकि तर्कवाद और आधुनिकवाद यीशु के ईश्वरत्व का इंकार करते हैं। बहुत हद तक जाकर उनके सारे तर्क केवल हठधर्मी सिद्ध होगें.......आधुनिककार तो यह भी कहते हैं कि शतपति का उत्तर मूर्तिपूजा वाली पौराणिक कहानियों से लिया हुआ है। क्या प्रचारकों ने शतपति के इस उत्तर पर विशेष ध्यान दिया है और सच्चे विश्वासियों के लिये इसका क्या अर्थ है‚ केवल उसे ही प्रदर्शित करते हैं.......निश्चित ही प्रचारकों ने शतपति की गवाही को अपने पाठकों से चालाकी से छिपाया नहीं होगा (आर सी एच लैंस्की‚ डी डी‚ दि इंटरप्रिटेशन ऑफ सैंट मार्क्स गॉस्पल‚ आग्सबर्ग पब्लिशिंग हाउस‚ १९४६‚ पेज ७२६—७२७‚ मरकुस १५:३९ पर व्याख्या)
जिस रीति से यीशु ने दम तोड़ा‚ उस से शतपति को यह प्रतीत हो गया कि उनके शत्रु गलत थे — और यीशु वास्तविक रूप में परमेश्वर के पुत्र थे। मरकुस की पुस्तक में लिखे गये वचन १५:३७ और ३९ को ध्यान से सुनिये‚
‘‘तब यीशु ने बड़े शब्द से चिल्लाकर प्राण छोड़ दिये" (मरकुस १५:३७)
‘‘जो सूबेदार उसके सम्हने खड़ा था‚ जब उसे यूं चिल्लाकर प्राण छोड़ते हुए देखा‚ तो उस ने कहा‚ सचमुच यह मनुष्य‚ परमेश्वर का पुत्र था" (मरकुस १५:३९)
यीशु मरने से पहिले उंची आवाज में चिल्लाते हैं ‘‘जो सूबेदार उनके सामने खड़ा था जब उन्हें यूं उंची आवाज में (चिल्लाकर) प्राण छोड़ते हुए देखा‚ तो उस ने कहा‚ सचमुच यह मनुष्य‚ परमेश्वर का पुत्र था" (मरकुस १५:३९) यीशु की ‘‘उंची आवाज" ने क्यों शतपति को ऐसा कहने के लिये बाध्य किया कि‚ ‘‘सचमुच यह मनुष्य‚ परमेश्वर का पुत्र था?" डॉ गैबेलीन की व्याख्या को सुनिये‚
यह उंची आवाज असामान्य थी क्योंकि क्रूस पर मरने वाले व्यक्ति के पास‚ विशेषकर जब वह मरने के इतने करीब हो‚ इतना बल ही नहीं रह जाता है कि वह उंची आवाज में चिल्ला सके। यीशु की मृत्यु सामान्य नहीं थी और न ही उनकी अंतिम सांस मरने वाले की अंतिम सांस निकलने के समान थी। यह तो विजयी होने की पुकार थी....... (गैबेलियन‚ उक्त संदर्भित‚ पेज ७८३; मरकुस १५:३७ पर व्याख्या)
शतपति ने सारा घटनाक्रम देखा था। क्रूसीकरण के पहिले वह अविश्वासी था। परंतु उसने सुना कि यीशु उसके लिये प्रार्थना करते हैं‚
‘‘हे पिता‚ इन्हें क्षमा कर‚ क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहें हैं" (लूका २३:३४)
उसने देखा कि पूरे देश में अंधकार छा गया। उसने भूकंप को देखा। वह ‘‘बहुत डर गया था" (मत्ती २७:५४) । अब उसने यीशु को इस तरह मरते हुए देखा‚ उसने इस रीति से क्रूस पर चढ़ाये गये किसी व्यक्ति को मरते हुए नहीं देखा था! दूसरे व्यक्ति जो क्रूस पर चढ़े हुए थे‚ वे सांस भी नहीं ले पा रहे थे — और चुपचाप उन्होंने दम तोड़ दिया। परंतु यीशु तो ‘‘उंची आवाज में" चिल्लाये! कहां से उनके भीतर यह उर्जा आयी? इस शतपति ने तो कई व्यक्तियों को क्रूस पर चढ़ाया होगा। किंतु किसी ने भी ‘‘जयवंत स्वर में" चिल्लाकर प्राण नहीं त्यागे। शतपति मान चुका था। यीशु के शत्रु गलत सिद्ध हो गये थे! शतपति स्वयं गलत सिद्ध हो गया था! क्रूस पर लटके मसीह के शव को देखकर उसने कहा‚
‘‘सचमुच यह मनुष्य‚ परमेश्वर का पुत्र था" (मरकुस १५:३९)
तो क्या उस शतपति का परिवर्तन हो गया था? मैं सोचता हूं कि हां ऐसा ही था‚ क्योंकि क्यों वह प्रारंभ में अविश्वासी था और अब वह कह पा रहा है — ‘‘सचमुच यह मनुष्य‚ परमेश्वर का पुत्र था" (मरकुस १५:३९) निश्चित ही यह तो पतरस की स्वीकारोक्ति के समान है! यीशु ने पतरस से पूछा था ‘‘तुम मुझे क्या कहते हो?" (मत्ती १६:१५) पतरस का उत्तर था‚ ‘‘जीवते परमेश्वर का पुत्र" (मत्ती १६:१६) यीशु कहते हैं‚
‘‘क्योंकि मांस और लोहू ने नहीं‚ परन्तु मेरे पिता ने जो स्वर्ग में है‚ यह बात तुझ पर प्रगट की है" (मत्ती १६:१७)
शिष्य पतरस के समान ही अत्यधिक विश्वास शतपति का भी था! अगर पतरस यीशु के लिये गवाही देते हैं कि ‘‘वे जीवते परमेश्वर के पुत्र हैं" और ऐसा कहने का प्रकाशन उन्हें परम सत्ता से मिला‚ तो शतपति की गवाही भी उसी स्त्रोत से आयी थी!
‘‘क्योंकि मांस और लोहू ने नहीं‚ परन्तु मेरे पिता ने जो स्वर्ग में है‚ यह बात तुझ पर प्रगट की है" (मत्ती १६:१७)
पतरस की तुलना में शतपति ने यीशु में अपने विश्वास का बेहतर प्रदर्शन किया! पतरस ने उन्हें छोड़ दिया था और भाग गये थे। किंतु शतपति पूर्णतः शत्रु पक्ष की उपस्थिति में खड़ा था — और निर्भिक होकर गवाही दी!
‘‘सचमुच यह मनुष्य‚ परमेश्वर का पुत्र था" (मरकुस १५:३९)
परंतु इसके साथ ही शतपति ने इतने ही महत्व की एक ओर बात कही। लेखक लूका हमें उस वाक्य के बारे में भी बताता है‚
‘‘निश्चय यह मनुष्य धर्मी था" (लूका २३:४७)
हो सकता है कि ये इतने महत्व का वाक्य नहीं लगे‚ तौभी यह महत्वपूर्ण है। डॉ लैंस्की कहते हैं कि उसने दोनों वाक्य कहे थेः ‘‘यह मनुष्य परमेश्वर का पुत्र था‚ यह मनु़ष्य धर्मी पुरूष था।" मरते हुए चोर ने भी यही कहा था, जब मरते मरते क्रूस पर ही वह परिवर्तित हो गया था‚
‘‘इस ने कोई अनुचित काम नहीं किया" (लूका २३:४१)
शतपति ने चोर को यह कहते हुए सुना था। उसने पहिले तो विश्वास नहीं किया था। उसने भी मसीह का पहिले मजाक उड़ाया था — जैसा कि चोर ने किया था! (लूका २३:३६; मत्ती २७:४४) परंतु अब अपने परिवर्तन में दोनों‚ इस बात पर सहमत हो गये‚
‘‘इस मनुष्य ने कोई अनुचित काम नहीं किया"
‘‘निश्चय यह मनुष्य धर्मी था"
शतपति और चोर ने उस स्वर्गिक प्रकाश से प्रज्जवलित होकर इस सत्य को देखा और कह उठे कि मसीह निरपराध थे। इससे बढ़कर — उन्होंने मसीह की धन्य धार्मिकता को देखा! क्या वे कुछ और भी जानते थे? धर्मशास्त्र इस विषय पर खामोश है। परंतु जितना उन्हें ज्ञात था‚ वह यह बताने के लिये पर्याप्त था कि यीशु पापरहित थे‚ जिन ‘‘अपराधों" के लिये उनके शत्रुओं ने उन्हें क्रूस पर चढ़ाया था‚ तो ऐसा कोई भी अपराध उन्होंने नहीं किया। चोर अवश्य इतना जान गया था कि उसके मुंह से निकला ‘‘प्रभु।" शतपति भी इतना जान गया था और उसने कहा‚
‘‘सचमुच यह मनुष्य‚ परमेश्वर का पुत्र था"
हम विश्वास करते हैं कि चोर परिवर्तित हो गया था। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमें शतपति के लिये भी ऐसा ही सोचना चाहिये।
मैं परंपराओं पर अधिक बल नहीं देता‚ क्योंकि ये अंधविश्वास से भरी होती हैं। किंतु इस संदेश के अंत में एक प्राचीनतम परंपरा के विषय में बताउंगा‚ जो यह कहती है कि यह व्यक्ति क्रिश्चयन हो गया था। डॉ लैंस्की ने कहा था‚
क्रिश्चियन पौराणिक कथा अनुसार‚ ये वह भाला मारने वाला‚ अन्यजाति सैनिक था जो मृत मसीहा के क्रूस तले खड़ा था और आस्था से क्रिश्चियन बन चुका था। उसकी स्वीकारोक्ति सशक्त थी क्योंकि उसने अपने वाक्य में यूनानी क्रियाविशेषण (एलीथोस) अर्थात ‘‘सचमुच का" प्रयोग किया था। इस क्रिया विशेषण का प्रयोग यहूदी अविश्वास और मखौल के बिल्कुल विपरीत होता है। अन्य (लोग) कुछ भी कहते आये हों‚ किंतु इस रोमी शतपति ने यीशु के स्वर्गिक पुत्र होने के रूप को पहचाना। (लैंस्की‚ उक्त संदर्भित मत्ती २७:५४ पर व्याख्या)
कुछ लोग मेरी आलोचना कर सकते हैं कि मैंने कैथोलिक परंपरा का उल्लेख किया। तौभी यह बात कैथोलिकवाद से भी पुरानी है। मैं नहीं जानता कि ये परंपरा सही है या गलत है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सत्य पर आधारित है‚ क्योंकि बाइबल में सुसमाचार लेखकों ने शतपति का बहुत अधिक वर्णन किया है‚ क्योंकि उन्होंने उसके बाद उसे एक क्रिश्चयन के रूप में जाना भी होगा। मैं यह भी जानता हूं कि शतपति का परिवर्तन एक प्रोटेस्टैंट के रूप में हुआ होगा। इसमे कुछ भी कैथोलिकवाद सम्मिलित नहीं है — कोई बपतिस्मा नहीं‚ प्रायश्चित नहीं‚ कोई संस्कार नहीं। केवल यीशु में साधारण सा विश्वास! और इसी तरह से यीशु प्रत्येक को जो उनके पास विश्वास से आते हैं‚ उद्धार देते हैं! आप परंपरा के बारे में कुछ भी विचार रख सकते हैं किंतु इस मनुष्य के परिवर्तन का अनुभव प्रोटेस्टैंट या बैपटिस्ट के ही समान था! इसमें कैथोलिक परंपरा का कोई समावेश नहीं था!
अब इन सबसे हम क्या सीखते हैं? धर्मशास्त्र इस सबक को सीधे तौर पर बताते हैं कि —दो मनुष्य‚ विश्वास करने वाला चोर और स्वीकार करने वाला शतपति‚ दोनो ने क्रूस पर चढ़े मसीह का मखौल उड़ाने से आरंभ किया था‚ जिस प्रकार पूरी भीड़ उनका मखौल उड़ाने में शामिल थी। यीशु को मरता हुआ देख‚ दो मनुष्य‚ शतपति और क्रूस पर लटके हुए एक चोर ने यीशु पर विश्वास किया। दूसरे दो और लोग‚ एक महापुरोहित और एक अपरिवर्तित दूसरी ओर लटका हुआ चोर‚ उन्होंने भी समान घटनाएं देखी तौभी अविश्वास में जिए। मेरे विचार से‚ यह सबक‚ परमेश्वर यहोवा चाहते हैं कि हम धर्मशास्त्र से सीख सकते हैं। दो चोरों ने एक समान घटनाएं देखी — एक परिवर्तित हो गया‚ दूसरा अपरिवर्तित ही बना रहा। दो मनुष्यों ने एक समान घटनाएं देखी‚ परंतु महापुरोहित अपरिवर्तित बना रहा और शतपति का परिवर्तन हो गया। दो लोग बाइबल से सुसमाचार सुनते हैं — एक अपरिवर्तित बना रहता है‚ दूसरा परिवर्तित हो जाता है।
सुसमाचार में आप ने कितनी बार पढ़ा है? कितनी बार आप ने सुसमाचार से प्रचार सुना है? दूसरे लोग यीशु के पास आ चुके हैं और उद्धार पा चुके हैं। कैसे हो सकता है कि अभी भी आप भटके रहें? यह कैसे हो सकता है कि आप यीशु के पास नहीं आना चाहें और उद्धार पाना नहीं चाहें? और कितना इंतजार बाकि है? यीशु आप से कहते हैं‚
‘‘हे सब परिश्रम करने वालों और बोझ से दबे लोगों‚ मेरे पास आओ‚ मैं तुम्हें विश्राम दूंगा" (मत्ती ११:२८)
यीशु आप के स्थान पर मरे कि आप के पापों का पूरा दाम चुका देवें। वह मर कर जी उठें कि आप को जीवन प्राप्त हो। तो फिर क्यों नहीं आप यीशु के पास आते हैं? किस बात का इंतजार करते हैं? क्यों नहीं परमेश्वर के पुत्र के पास आते हैं?
यीशु ने क्रूस पर लटके उस चोर से इतना प्रेम किया कि वह मौत के द्वार पर ही खड़ा था और उसे उद्धार प्रदान कर दिया। यीशु ने उस शतपति से इतना प्रेम किया कि उसे विश्वास प्रदान कर दिया‚ यद्यपि इसी शतपति ने उनके क्रूस पर चढ़ाये जाने की सजा अपने निर्देशन में पूर्ण करवाई थी‚ उसी ने उस अभिशप्त लकड़ी पर उनके हाथों और पैरों में कीलें ठोंके जाने का आदेश दिया था! यीशु आप से ही उतना ही प्रेम करते हैं और आज रात्रि वे आप के पापों को भी क्षमा करना चाहते और आप की आत्मा को उद्धार देना चाहते हैं। जो भी पाप आप ने किये हो कितने भी लंबे समय तक आप उनसे दूर रहे हों‚ वे आप को उद्धार देना चाहते हैं। उनके पास आइये‚ वे जो आप से प्रेम रखते हैं। वे अपने अनमोल लहू से आप के पापों को धोकर शुद्ध कर देवेंगे!
मैंने पीड़ा और लहूलूहान रूप में
किसी को लटका हुआ देखा
उन्होंने अपनी दर्द से भरी आंखे मुझ पर क्रेदित कर लीं
जब मैं क्रूस के समीप खड़ा हुआ था।
फिर उन्होंने मुझ पर डाली और बोले‚
मै बेदाम सब पाप माफ करता हूं तेरे
यह लहू जो बहा‚ उसमें सारे पापों का दंड चुक गया
मैं मरता हूं कि तू जीवित रह सके
(‘‘ही डाइड फॉर मी" जॉन न्यूटन द्वारा रचित गान‚ १७२५—१८०७;
‘‘ओ सेट यी ओपन अनटू मी")
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(संदेश का अंत)
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