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आत्मिक जाग्रति ठुकराये जाने से बचाव हैREVIVAL CURES REJECTION डॉ आर एल हिमर्स लॉस ऐंजीलिस के दि बैपटिस्ट टैबरनेकल चर्च में‚ ९ अगस्त‚ २०१७ ‘‘प्रेम में भय नहीं होता‚ वरन सिद्ध प्रेम भय को दूर कर देता है‚ क्योंकि भय से कष्ट होता है‚ और जो भय करता है‚ वह प्रेम में सिद्ध नहीं हुआ" (१ यूहन्ना ४:१८) |
एक प्रख्यात मनोवैज्ञानिक ने एक पुस्तक ने लिखी है जो २८८ प्रकार के भय को सूचीबद्ध करती है‚ ऐसे भय जिसका अनुभव लोग जीवन में करते हैं − उनमें से २८८ प्रकार के भय होते हैं! छः प्रकार के सर्वाधिक सामान्य भय इस प्रकार हैं‚ इंकार किये जाने का भय‚ मृत्यु का भय‚ वृद्ध होने का भय‚ गरीबी का भय‚ बीमारी का भय‚ आलोचना किये जाने का भय। ‘‘इंकार कर दिये जाने का भय सब भयों से बढ़कर होता है। इंकार किये जाने का भय मृत्यु से बढ़कर प्रबल होता है!" इसके बारे में सोच कर देखिये! लोग ठुकरा दिये जाने के बजाय मरना पसंद करेंगे!
डॉ क्रिस्टोफर कैगन शायद मुझे सबसे बढ़कर जानते हैं। उनका कहना था‚ ‘‘डॉ हिमर्स एक सामान्य परिवार में बड़े नहीं हुए। अगर सामान्य परिवार में परवरिश हुई होती‚ तो वे और अधिक मुखर और मिलनसार होते। परंतु बचपन में बहुत अधिक भटकने और ठुकरा दिये जाने ने उन्हें और अधिक अंर्तमुखी बना दिया − एक व्यक्ति जो भीतर की ओर मुड़ गया हो। आप उन्हें अंर्तमुखी इंसान के तौर पर पहचान नहीं सकते क्योंकि वे संदेश बहुत अच्छा देते हैं। परंतु भीतर से वे बहुत संवेदनशील इंसान है और अपनी कमजोरी से वाकिफ हैं।" डॉ कैगन सही कहते हैं। मैं भीड़ में बहुत खुश रह सकता हूं। लोगों का साथ मुझे अच्छा लगता है, परंतु जब मेरा मूड बदलता है मैं बहुत अधिक गुस्सा और अकेलापन व ठुकरा दिये जाने और हताश होने के दर्द का सामना करता हूं। केवल तब मैं ठुकराने के दर्द को महसूस नहीं करता हूं जब मैं अकेला होता हूं या जब मैं परमेश्वर की उपस्थिति को महसूस करता हूं।
मुझे चर्च में उस समय बहुत अच्छा लगा है जब आत्मिक जाग्रति फैलती है − जब परमेश्वर की उपस्थिति इतनी वास्तविक होती है कि मेरे ठुकराये जाने या अकेले पड़ जाने के मनोभावों को बाहर धकेल देती है। इसलिये मैं समझता हूं कि जवान जब चर्च आते हैं तो उन्हें कैसा लगता है। हम उन्हें स्वीकार करते और प्रेम करते हैं। जब वे कुछ समय आते हैं हम सोचते हैं कि वे वास्तव में ‘‘चर्च" में हैं। हम सोचते हैं कि उनकी मनोदशा ठीक हो गयी है। जल्द ही वे स्वयं को दरकिनार कर दिया हुआ या ठुकराया हुआ महसूस करते हैं। केवल वे जवान जो ठुकरा दिये जाने को भी सह जाते हैं, वे यहां रूके रहते हैं।
जैसे मैं इस चर्च में ठहरा रहा‚ वे भी ठहरे रहे। भले ही मैं ठुकराया हुआ महसूस करता परंतु मैं इसलिये यहां ठहरा रहा क्योंकि जाने के लिये कोई दूसरा स्थान था भी नहीं। मैं अकेला था‚ परंतु चर्च में बहुत सारे लोग थे। मैं प्रगट में दिखाता रहा कि मुझे लोगों ने स्वीकार कर लिया है भले ही मैं अंदर ही अंदर ठुकराये जाने के दर्द को पी रहा था। रविवार की रात को जब मैं घर लौटा तो ठुकराये जाने के दर्द ने लगभग मुझे घेर लिया। एक प्रसिद्ध गीत के बोल मेरे जेहन में गूंज रहे थे‚ जब मैं गाड़ी चला रहा था‚ ‘‘खुद ब खुद फिर से अकेला।"
चर्च में एक जवान स्वयं को स्वीकारे जाने और प्रेम किये जाने की अपेक्षा करता है परंतु उसे चर्च में बैठे लोगों से वही ठंडापन और ठुकराव मिलता है। लगभग हर युवा जो चर्च छोड़ कर जाता है, ऐसी ही मनोदशा से गुजर चुका होता है क्योंकि चर्च उसे वह सब देने में असफल रहा, जिसका वायदा चर्च ने उसने किया था। आइये, हम एक गीत गाते हैं
आओ चर्च में आओं और संगति कर लो‚
एक मधुर संगति के लिये एकत्रित हो‚
और जब हम आत्मिक भोजन लेंगे
वह एक सहभोज जैसा होगा।
वे हमें गाते हुए सुनते हैं परंतु उन्हें चिड़चिड़ापन हो जाता है। वे चर्च के प्रति हंसी उड़ाने वाला नजरिया रखने लगते हैं। उनके चेहरे पर विद्रुप हंसी होती है क्योंकि वे जानते हैं कि हम उन्हें चर्च में सब के साथ ‘‘मधुर संगति" प्रदान करने के लिये झूठ बोल रहे होते हैं। जब वे ‘‘आत्मिक भोजन के लिये बैठते हैं" तो वह संगति मधुर नहीं लगती। वे सोचते हैं कि‚ ‘‘ये लोग ‘मधुर संगति’ के लिये कहते तो हैं परंतु सदस्य स्वयं ही उस संगति को महसूस नहीं करते। यहां तक कि डॉ हिमर्स भी इसे महसूस नहीं कर पाते।" इसलिये जवान फिर से संसार में लौट जाते हैं। क्योंकि ये उन्हें चर्च के समान ही लगता है। और कम से कम संसार उन्हें ‘‘मधुर संगति" के भुलावे में तो नहीं रखता। कम से कम संसार में उन्हें ऐसा मित्र तो मिलेगा जो उन्हें स्वीकार सकता है। जो चर्च में आप को कभी नहीं मिलेगा। चर्च में आप को क्या मिलेगा, केवल पाखंड, ठंडापन और ठुकराया जाना।
क्यों चर्च में मसीह के समान प्रेम नहीं मिलता? क्योंकि चर्च कें सदस्य खुद डरे हुए हैं। डर जो है‚ वह वास्तविक प्रेम हममें से हर लेता है। वे मेरे लिये क्या सोचेंगे? वे मेरे बारे में क्या कहेंगे? क्या होगा‚ अगर वे मुझे जान जायेंगे? क्या होगा अगर वे सचमुच में मुझे जान जायेंगे कि मैने क्या और मेरे विचार कैसे हैं, मेरा छिपा आचरण कैसा है? वे मुझे ठुकरा देंगे या − मैं समाज की निगाहों से गिर जाउंगा।! ठुकरा दिये जाने का दर्द सबसे बड़ा है मौत के भय से भी बढ़कर! बीमारी के भय से भी बढ़कर। पूरे संसार में किसी भी भय से बढ़कर! राबर्ट फ्रास्ट ने इसे बहुत सिद्ध रूप में प्रगट किया है।
कवि राबर्ट फ्रास्ट ने इसे बहुत सिद्ध रूप में प्रगट किया है। ‘‘रिविलेशन" उनकी कविता में यही भाव मिलता है।
हम अपने आप के लिये एक अलग स्थान बना लेते हैं
उन हल्के शब्दों के पीछे जो चिढाते और उपहास करते हैं‚
परंतु हे उत्तेजित मानस
कोई हमें सचमुच खोज ले।
किसी किसी बात में तरस खाने वाली बात हो जाती है
इसलिये हम कहते हैं कि अंत में
प्रेरणा देने के लिये यथाशब्द कहते हैं
किसी मित्र को समझने के लिये।
सबके साथ मिलकर बच्चे से लेकर
जो छिपा छिपी खेलते है, ईश्वर तक‚
सब जो अच्छे से छिप सकें
उन्हें बोलना चाहिये और हमें बताना चाहिये कि अवस्था क्या है।
(‘‘रिविलेशन" बॉय राबर्ट फ्रास्ट‚ १८७४−१९६३)
और इन पंक्तियों का भाव हमें हमारे पद तक लेकर आता है।
‘‘प्रेम में भय नहीं होता‚ वरन सिद्ध प्रेम भय को दूर कर देता है‚ क्योंकि भय से कष्ट होता है‚ और जो भय करता है‚ वह प्रेम में सिद्ध नहीं हुआ" (१ यूहन्ना ४:१८)
हम ठुकराये जाने के दर्द के उपर कैसे विजय पा सकते हैं? सिद्ध प्रेम के द्धारा! परंतु ‘‘सिद्ध" प्रेम हमें कैसे मिल सकता है? ‘‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं! मैं तुमसे प्रेम करता हूं!’’ ऐसा बोलने से नहीं। १ यूहन्ना ३:१८ को देखिये‚ ‘‘हे बालकों, हम वचन और जीभ ही से नहीं, पर काम और सत्य के द्वारा भी प्रेम करें।" हम यह कैसे कर सकते हैं? यह आसान नहीं है। हम क्रियाशील प्रेम करने से डरते हैं। शायद हम ठुकराये जायेंगे!!! परंतु प्रेम कर्म से ही प्रकट करना है अगर हम वास्तव में सच्ची आत्मिक जाग्रति चाहते हैं। हमें इसे करने के लिये स्वयं को बाध्य करना होगा। हम शब्दशः बोलते हैं ताकि किसी मित्र की समझ को प्रेरित कर सकें। ताकि वे सब जो (स्वयं को) भली भांति छिपाये हुए हैं, उनके मुख से एक दिन यह निकल जाये कि वे अपनी जीवन यात्रा में कहां हैं। यह सच्चा प्रकाशन है, जो हमे मिलना आवश्यक है, अगर हम आत्मिक जागरण को देखने की इच्छा रखते हैं। बाइबल में से १ यूहन्ना १:९ और १० पढ़िये। जब मैं इसे पढ़ता हूं‚ अपने स्थानों पर खड़े हो जाइये।
‘‘यदि हम अपने पापों को मान लें‚ तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है। यदि कहें कि हम ने पाप नहीं किया तो उसे झूठा ठहराते हैं और उसका वचन हम में नहीं है" (१ यूहन्ना १:९‚ १०)
अब आप बैठ सकते हैं। हमारे पापों को स्वीकार लेना‚ आत्मिक जागरण पाने की कुंजी है। अगर हमने परमेश्वर के विरूद्ध पाप किया है तो हमारे पापों को उसके सामने आंसुओं में स्वीकारना पर्याप्त होगा।
शब्दों में नहीं‚ परंतु ऐसी स्वीकारोक्ति जिसमें आंखे आंसुओं से भर जायें‚ जैसे चीन के कुछ हिस्सों में आत्मिक जाग्रति आयी और लोगों का ऐसा अनुभव रहा‚ जैसे सारी सच्ची आत्मिक जाग्रतियों में होता है। ब्रायन एडवर्ड ने सही कहा था‚ आंसुओं में पाप की स्वीकारोक्ति किये बिना कोई आत्मिक जाग्रति जैसी कोई चीज नहीं (रिवाईवल‚ पेज ११५) आगे उन्होंने यह भी कहा जब तक आप का पाप आप को कचोटे नहीं‚ बैचेन न कर दे‚ भीतर से तोड़ न दे‚ तब तक आत्मिक जाग्रति नहीं हो सकती (पेज ११६) । गहरे बोध के कारण‚ वे अपने पाप को महसूस करने लगेंगे और पाप से बैर करेंगे (पेज १२२)। इसलिये पाप को बोध होना आत्मिक जाग्रति पाने की कुंजी है! अगर हमने परमेश्वर के विरूद्ध पाप किया है तो हमें आंसुओं में उसे स्वीकारना होगा और वह हमें सारी अधार्मिकता से दूर करेगें। आइये खड़े होकर यह गीत गाते हैं मुझे परमेश्वर आप खोजिये।
‘‘हे ईश्वर‚ मुझे जांच कर जान ले!
मुझे परख कर मेरी चिन्ताओं
को जान ले! और देख
कि मुझ में
कोई बुरी चाल है कि नहीं‚
और अनन्त के पथ पर मेरी अगुवाई कर!"
(भजन १३९:२३‚२४)
अब आप बैठ सकते हैं। चर्चेस में हमारी आत्मायें जाग्रति पाने से इसलिये दूर हैं क्योंकि ‘‘हमने अपना स्थान हल्के शब्दों तक सीमित कर रखा है‚ जैसे सिखाने वाले का उपहास उड़ाना और चिढ़ पैदा करने वाली बातें कहना (व्यंग्य कसना‚ तिरस्कार से देखना‚ मजाक उड़ाना‚ चुटकुले बनाना इत्यादि।)"
दूसरी बात, हमकों आत्मा में और गहरे उतरना होगा। आइये याकूब की पुस्तक ५:१६ खोलते हैं।
‘‘इसलिये तुम आपस में एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान लो और एक दूसरे के लिये प्रार्थना करो‚ जिस से चंगे हो जाओ" (याकूब ५:१६)
अब आप बैठ सकते हैं। मैथ्यू हैनरी ने कहा था‚
आपस में मसीहियों को एक दूसरे से पाप की स्वीकारोक्ति करना बहुत आवश्यक है .......... एक दूसरे के सामने गलतियों को मान लेने से मेल मिलाप की संभावना बढ़ती है‚ वैमनस्य कम होता है‚ और अपने पापों से क्षमा प्राप्ति के लिये‚ परमेश्वर की सामर्थ पाने के लिये एक दूसरे के लिये प्रार्थना करके सहायता दे सकते हैं। जो लोग अपनी गलतियों को स्वीकार करते हैं‚ उन्हें आपस में एक दूसरे के साथ और एक दूसरे के लिये प्रार्थना करना चाहिये।
नये नियम की व्यवहारिक व्याख्या याकूब ५:१६ पर निम्न विचार प्रस्तुत करती है‚
चर्च में और लोगों के मध्य सच्ची संगति तभी होती है‚ जब हम हमारे पाप एक दूसरे के सामने मान लें। जब हम ऐसा करते हैं तो हमें आत्मिक चंगाई मिलती है। हमें एक दूसरे से बातें नहीं छिपाना चाहिये।
मनुष्य के भीतर का स्वार्थ उससे ऐसा आचरण करवाता है। हो सकता है कि आप को चर्च में किसी ने दुख पहुंचाया हो। आप की भावनाओं को आहत किया हो। किसी ने आप की परवाह नहीं की हो। आप के परमेश्वर के लिये किये गये कार्य को कम आंका हो। किसी ने मखौल उड़ाया हो। हर मसीही जन में गलतियां होती हैं। हमने जो एक दूसरे के प्रति गलत किया हो‚ उसे छिपाना नहीं चाहिये। परमेश्वर की उपस्थिति होना बहुत अधिक बहुमूल्य बात है। अपने घावों को भीतर छिपाना और शिकायतों को प्रगट नहीं करना‚ हमें एक दूसरे से प्रेम करने के रास्ते में रूकावट बनता है। ‘‘बहुधा, पाप का गहरा अहसास हमें लोगों के मध्य अपने पाप की स्वीकारोक्ति का बल प्रदान करता है.......... उससे बिगड़ते संबंध सही हो जाते (हैं)....... परमेश्वर का आनंद और महिमा प्राप्त करने के पहले पाप का बोध हो जाना आवश्यक है। यह परमेश्वर के लोगों के मध्य आरंभ होता है। ऐसी अवस्था आने पर आप के आंसु निकल पड़ेगें। गहरा दुख होगा।
गलतियों को सही करने का समय है‚ गुप्त बातें जो दूसरे मनुष्य नहीं जानते‚ उनको दूर करने की आवश्यकता है‚ बिगड़ते संबंधों को खुले में स्वीकार कर सुधारने की जरूरत है। अगर हम ऐसा (करने की) इच्छा नहीं रखते हैं तो नया जन्म पाने की प्रार्थना करने का कोई अर्थ नहीं है। आत्मिक जागरण चर्च के आनंद के लिये नहीं है, यह तो मंडली के लोगों को शुद्ध करने के लिये है। हमारी कलीसिया अपवित्र है क्योंकि हमारे मसीही सदस्यों को उनका पाप कचोटता ही नहीं है और वे एक दूसरे के सामने (पापों को आंसुओं के साथ स्वीकार ही नहीं) करते हैं (एडवर्ड‚ रिवाईवल ‚ पेज ११९‚१२०) ।
हृदय में प्रफुल्लित नहीं हो सकते‚ जब तक एक दूसरे के सामने आंसुओं से पाप स्वीकार नहीं करेंगे‚ न ही मंडली में आत्मिक जाग्रति आयेगी। चीन में यह बार बार देखने को मिल रहा है। हमारे चर्च में क्यों नहीं होता? हमें तो इतना अहंकार है कि हम तो एक दूसरे के सामने अपनी की गई गलतियों को स्वीकार ही नहीं करेंगे। हम तो प्रसिद्ध खानदानी लोग हैं। हमारी इज्जत खराब हो जायेगी। लोग क्या सोंचेंगे? शैतान इस भय को हमारे अंदर पैदा करके, हमारी आत्मा को उद्धार पाने से रोकता है। शैतान जानता है कि वह हमें आत्मा में उद्धार पाने के आनंद से वंचित कर सकता है, इस भय से कि लोग क्या कहेंगे। शैतान जानता है, हमें डराये रखने के द्वारा हमारी कलीसिया कमजोर और लाभ पाने से वंचित रहेगी। लोगों के कहने का डर हमें पाप स्वीकार करने से रोकता है, इसीलिये हमें चंगाई भी नहीं मिल पाती। यशायाह ने कहा था, ‘‘तू कौन है जो मरने वाले मनुष्य से, डरता है..........और अपने कर्ता यहोवा को भूल गया है" (यशायाह ५१:१२‚१३)। बाइबल कहती है‚ ‘‘मनुष्य का भय खाना फन्दा हो जाता है" (नीतिवचन २९:२५)। निवेदन है कि खड़े होकर नीतिवचन २८:१३ को पढ़ें। यह स्कोफील्ड अध्ययन बाइबल में पेज ६९२ पर मिलता है। प्रत्येक जन इसे जोर से पढ़े!
‘‘जो अपने अपराध छिपा रखता है‚ उसका कार्य सुफल नहीं होता परन्तु जो उन को मान लेता और छोड़ भी देता है‚ उस पर दया की जायेगी" (नीतिवचन २८:१३) ।
‘‘हे ईश्वर‚ मुझे जांच कर जान ले" − गीत को गायेंगे।
‘‘हे ईश्वर‚ मुझे जांच कर जान ले!
मुझे परख कर मेरी चिन्ताओं
को जान ले! और देख
कि मुझ में
कोई बुरी चाल है कि नहीं‚
और अनन्त के मार्ग में मेरी अगुवाई कर!"
(भजन १३९:२३‚२४)
‘‘जीवित परमेश्वर की आत्मा" − इस गीत को गायेंगे!
जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।
जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।
मुझे पिघला दीजिये‚ मुझे ढालिये‚ मुझे तोड़िये‚ मुझे झुकाइयें।
जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।
(‘‘जीवित परमेश्वर की आत्मा" दानियेल इवरसन‚१८९९−१९७७;
पास्टर द्वारा संशोधित)
अब आप बैठ सकते हैं।
मसीह ने कहा था‚ ‘‘धन्य हैं वे जो शोक करते हैं।" यह उनके लिये कहा गया है जो अपने पापों को मानते और उस के लिये रोते हैं। जो नया जन्म पाने की इच्छा रखते हैं, पाप उनके लिये बड़ी समस्या है। आत्मा में जाग्रति आने से हम अपने भीतर के पापों को देखने लगते हैं, जो संसार को दिखाई नहीं देते हैं। आत्मा में जाग्रति भीतर के पापों का दृश्य दिखा देती है। इवान राबर्ट ने कहा था जब वे अपनी मंडली में लोगों को आत्मा में जाग्रति पाने के लिये प्रेरित कर रहे थे, उनका कहना था जब तक लोग तैयार नहीं होंगे, तब तक पवित्र आत्मा भी नहीं उतरेगा। उन्होंने कहा था कि ‘‘हमें सब बुरी भावनाओं से छुटकारा पाना चाहिये − सारी कड़वाहट से‚ सारी असहमतियों से, सारे क्रोध से।" अगर आप को लगता है कि आप किसी को क्षमा नहीं कर पा रहे हैं, तो घुटनों के बल झुक कर प्रार्थना कीजिये और प्रभु यीशु से मांगिये कि आप को क्षमा करने वाला आत्मा दिया जाये − कि जिस व्यक्ति के साथ आपने गलत किया है, उससे पास जाकर क्षमा मांगे तभी परमेश्वर की मधुर उपस्थिति आप महसूस कर सकेंगें। एक सच्चे मसीही को तभी परमेश्वर के प्रेम और पवित्र उपस्थिति का अहसास हो सकता है। आत्मा में उद्धार पाने का आनंद अपवित्र चर्च में नहीं आ सकता जहां सदस्य आंसुओं के साथ अपने पापों को स्वीकारने से पीछे हटते हों। हमारी बहिन इस गीत को वाध पर बजायेगी, तब हम इस रविवार की रात्रि आप को अपने पापों को स्वीकारने का अवसर देते हैं ‘‘मेरे दर्शन को पूरा कर दीजिये"। प्रार्थना कीजिये कि पवित्र आत्मा आज रविवार की इस रात आप को और अन्य लोगों को पाप स्वीकार करने का मन दे। एक दूसरे के पास जाइये और दो या तीन के झुंड में प्रार्थना कीजिये कि पाप स्वीकार करने की आत्मा हरेक को मिल सके। खड़े होकर ‘‘मेरे दर्शन को पूरा कर दीजिये" इस गीत को गाइये। गीत संख्या १७ है।
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये मेरे मसीहा‚ प्रार्थना है मेरी‚
आज मैं केवल यीशु के दर्शन करूं;
यद्यपि‚ घाटी से होकर आप मुझे ले चलते हैं‚
आप की कभी न मुरझाने वाली महिमा मुझे घेरे रखती है।
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये मेरे मसीह‚
जब तक आप की महिमा से मेरी आत्मा रोशन न हो जाये।
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये कि सब देख सकें
आप की पवित्र प्रतिच्छाया मुझमें प्रगट हो।
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये‚ मेरी हरेक इच्छा
मेरी हरेक इच्छा आप के महिमा के लिये सुरक्षित हो‚ मेरी आत्मा प्रेरित हो
आप की सिद्धता से‚ आप के पवित्र प्रेम से‚
आप की रोशनी की प्रबलता से मेरे मार्ग रोशन हों
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये मेरे मसीह‚
जब तक आप की महिमा से मेरी आत्मा रोशन न हो जाये।
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये कि सब देख सकें
आप की पवित्र प्रतिच्छाया मुझमें प्रगट हो।
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये कि पाप की लेशमात्र प्रतिच्छाया
मेरे भीतर दमकती आप की आभा को धूमिल न कर सके।
मैं केवल आप के धन्य चेहरे के दर्शन करूं‚
मेरी आत्मा आप के अनंत अनुग्रह के दर्शन करे।
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये मेरे मसीह‚
जब तक आप की महिमा से मेरी आत्मा रोशन न हो जाये।
मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये कि सब देख सकें
आप की पवित्र प्रतिच्छाया मुझमें प्रगट हो।
(‘‘मेरे संपूर्ण दर्शन को पूरा कर दीजिये" ऐविस बर्जसन क्रिश्चियनसन‚ १८९५−१९८५)
अब गीत गायेंगे, ‘‘मैं इसे आगे सौपना चाहूंगा।" यह आप की गीत की पुस्तिका में १८ संख्या पर है।
आग के लिये मात्र एक चिंगारी की जरूरत होती है
जल्द ही इसके आसपास लोगों की इसकी उष्णता मिलने लगती है
ऐसा ही तो परमेश्वर के प्रेम के साथ है‚ एक बार जो आप ने इसे अनुभव कर लिया‚
आप यह प्रेम सबके बीच फैलाना चाहेंगे‚ आप उसे सौपंना चाहेंगे।
बसंत क्या ही अदभुत महिना है सब कलियां खिलने लगती हैं‚
चिड़िया गाने लगती है‚ फूल झूमने लगते हैं।
ऐसा ही तो परमेश्वर के प्रेम के साथ है‚ एक बार जो आप ने इसे अनुभव कर लिया‚
आप बसंत की ताजगी को गाना चाहेंगे‚ आप उसे सौपंना चाहेंगे।
मैं चाहता हूं मेरे मित्र‚ जो आनंद मैंने पाया है‚
आप उस पर निर्भर रह सकते हैं‚ आप कहीं भी क्यों न बंधे हुए हो‚
मैं पर्वतों पर से चिल्लाउंगा‚ मैं चाहता हूं मेरा संसार जान लें‚
मसीह का प्रेम मेरे भीतर उतर चुका है‚ मैं उसे सौपना चाहूंगा।
(‘‘मैं उसे सौपना चाहूंगा" कर्ट कैशर‚ १९६९‚ पास्टर द्वारा संशोधित किया हुआ)
अगर इस संदेश ने आपको आशीषित किया है तो डॉ हिमर्स आप से सुनना चाहेंगे। जब आप डॉ हिमर्स को पत्र लिखें तो आप को यह बताना आवश्यक होगा कि आप किस देश से हैं अन्यथा वह आप की ई मेल का उत्तर नहीं दे पायेंगे। अगर इस संदेश ने आपको आशीषित किया है तो डॉ हिमर्स को इस पते पर ई मेल भेजिये उन्हे आप किस देश से हैं लिखना न भूलें।। डॉ हिमर्स को इस पते पर rlhymersjr@sbcglobal.net (यहां क्लिक कीजिये) ई मेल भेज सकते हैं। आप डॉ हिमर्स को किसी भी भाषा में ई मेल भेज सकते हैं पर अंगेजी भाषा में भेजना उत्तम होगा। अगर डॉ हिमर्स को डाक द्वारा पत्र भेजना चाहते हैं तो उनका पता इस प्रकार है पी ओ बाक्स १५३०८‚ लॉस ऐंजील्स‚ केलीफोर्निया ९००१५। आप उन्हें इस नंबर पर टेलीफोन भी कर सकते हैं (८१८) ३५२ − ०४५२।
(संदेश का अंत)
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संदेश के पूर्व बैंजमिन किंकेड ग्रिफिथ ने एकल गान गाया:
‘‘रिवाईव अस अगेन’’(विलियम पी मैके, १८३९−१८८५)