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आत्मिक जाग्रति के लिये कैसे प्रार्थना करें

(आत्मिक जाग्रति पर संदेश संख्या २२)
HOW TO PRAY FOR REVIVAL
(SERMON NUMBER 22 ON REVIVAL)
(Hindi)

द्वारा डॉ.आर.एल.हिमर्स
by Dr. R. L. Hymers, Jr.

रविवार की सुबह, २७ सितंबर, २०१५ को लॉस ऐंजीलिस के दि बैपटिस्ट टैबरनेकल में
प्रचार किया गया संदेश
A sermon preached at the Baptist Tabernacle of Los Angeles
Lord’s Day Evening, September 27, 2015


कृपया प्रेरितों के काम १८ निकाल लेंवे। यह स्कोफील्ड बाइबल में पेज ११४८ पर मिलता है। जब मैं पढता हूं कृपया‚ आप खडे हो जाइये। ये वे शिक्षायें हैं जो मसीह ने प्रथम कहलाये जाने वाले मसीहियों को दी थी‚

''परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ पाओगे; और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में‚ और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।'' (प्रेरितों के काम १:८)

अब आप बैठ सकते हैं।

कुछ प्रचारक कहते हैं कि यह पेंतुकुस्त के दिन पवित्र आत्मा उडेले जाने के लिये ही संकेत देता है। वे कहते हैं कि अब हम पवित्र आत्मा को उस रूप में आने के लिये नहीं सोच सकते हैं। कई लोग तो डरते हैं कि अगर आज पवित्र आत्मा उसी रूप में उतर आये तो उनके लोग पेंटीकोस्टल हो जायेंगे। इसलिये वे पाप बोध और परिवर्तन को होने देने से बचते हैं क्योंकि वे पेंटीकोस्टलिज्म से डरते हैं। परंतु वे गलत हैं जब वे सोचते हैं कि आज हमारे समय में पवित्र आत्मा उतर कर नहीं आ सकता। हमारे आज के पद के अंतिम आठ शब्द प्रदर्शित करते हैं कि वे गलत हैं क्योंकि यहां ऐसा लिखा है‚ ''और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।'' एक आधुनिक अनुवाद इसे ऐसा लिखता है कि‚ ''संसार के दूरस्थ क्षेत्रों तक मेरे साक्षी ठहरेंगे।'' चूंकि वे प्रारंभिक मसीही ''दूरस्थ'' और ''संसार के छोर'' तक नहीं जा सकते थे इसलिये यह बात यीशु सारे मसीहियों के लिये एवं सब समयों के लिये के लिये कह रहे थे। उन्होने उनसे और हमसे कहा कि‚ ''जब पवित्र आत्मा तुम पर आयेगा तो तुम सामर्थ पाओगे।'' पतरस ने थोडे बाद में जो प्रेरितो के कार्य २:३९ में कहा‚ यह वहां पर सिद् होता है। हम इसे निकालेंगे।

''क्योंकि यह प्रतिज्ञा (पवित्र आत्मा की) तुम‚ और तुम्हारी सन्तानों‚ और उन सब दूर दूर के लोगों के लिये भी है जिन को प्रभु हमारा परमेश्वर अपने पास बुलाएगा।'' (प्रेरितो के कार्य २:३९)

इसलिये चेले यरूशलेम गये‚ और उपर के कमरे में जाकर प्रार्थना करने लगे। वे किसलिये प्रार्थना कर रहे थे? वे पवित्र आत्मा की सामर्थ पाने के लिये प्रार्थना कर रहे थे जैसा प्रभु यीशु ने उनसे कहा था‚ ''जब पवित्र आत्मा तुम पर आयेगा तो तुम सामर्थ पाओगे।'' (प्रेरितो के कार्य १:८) मैं आयन एच मरे से बिल्कुल सहमत हूं। उन्होंने कहा था‚

पेंतुकुस्त ने एक नये युग की शुरूआत की मसीह द्वारा आत्मा के उडेले जाने का कार्य फिर कभी बंद नहीं हुआ। पवित्र आत्मा का पूर्ण संबंध संपूर्ण जो (मसीही) युग को चिंहिंत करता है‚ जो पेंतुकुस्त के दिन‚ प्रारंभ हुआ था इसे स्थायी और अपरिवर्तनशील नहीं रहना था; क्योंकि अगर ऐसा होता‚ तो जैसा चेलो को बताया गया था तो उनके अधिकाधिक पवित्र आत्मा के मांगने से कौनसा उददेश्य सिद् होता? जब यह निवेदन किया गया कि ‘हमें प्रार्थना करना सिखा’ तो यीशु ने कहा‚ ''सो जब तुम बुरे होकर अपने लड़के-बालों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो स्वर्गीय पिता अपने मांगने वालों को पवित्र आत्मा क्यों न देगा'' (लूका ११:१३) यह प्रतिज्ञा तब तक प्रासंगिक नहीं होगी जब तक मसीहियों द्वारा और अधिक आत्मा प्राप्त करने की चाह न हो। (आयन एच मरे, पेंटीकोस्ट टूडे? दि बिब्लीकल अंडरस्टैंडिंग आँफ रिवाइवल, दि बैनर आँफ ट्रूथ ट्रस्ट, १९९८, पेज २१)

ऐलेक्सजेंडर मूडी स्टूअर्ट ने कहा था‚ ''जबकि पवित्र आत्मा उनके चर्च में सदा उपस्थित रहता है, तो ऐसा होता है कि वह अधिकाधिक पिता के समीप खिंचे चले आते हैं और उन्हें अधिकाधिक सामर्थ मिलता है'' (मरे, पूर्वोक्त, पेज २२)

पर हमने १८५९ की आत्मिक जाग्रति के बाद यह बहुत कम देखा है सच में बहुत ही कम। मैं इस बात पर राजी हूं कि बहुत से इवेंजलीकल्स यह नहीं मानते कि परिवर्तन होना आश्चर्यकर्म हैं। कई इवेंजलीकल्स आज भी सोचते हैं कि परिवर्तन होना और कुछ नहीं परंतु मानवीय निर्णय है। वे सोचते हैं कि हमें सिर्फ इतना करना है कि भटके हुये व्यक्ति से ''पापियों की प्रार्थना'' दोहरवाना है। बस उन शब्दों को कहो और आप बच जायेंगे! जोएल आस्टीन हर संदेश के अंत में यही कहते हैं। उनके पास लोग हैं जो यह प्रार्थना दोहरवाते हैं। तब वह कहते हैं कि‚ ''हम विश्वास करते हैं कि अगर आपने ये शब्द कहे हैं तो आपका नया जन्म हो चुका है।'' आप पायेंगे कि उन लोगों को पवित्र आत्मा की कोई आवश्यकता ही नहीं कि वह कोई आश्चर्यकर्म करे! अगर आपने ये शब्द दोहरायें हैं ''तो आपका नया जन्म हो चुका।''

यह एक प्राचीन समय की प्रचलित शिक्षा पेलाजियनिज्म की तरफ लौटना है − यह सिद्धांत सिखाता है कि मनुष्य अपना उद्वार स्वयं ला सकता है − और इस उदाहरण में तो कुछ शब्दों को दोहराने के द्वारा ला सकता है! या एक मसीही आराधना में ''आगे आने'' के द्वारा − या हाथ उंचा करने के द्वारा ला सकता है! ''आप में से जो बचना चाहते हैं हाथ उंचा करें'' यह फूहड़ पेलाजियनिज्म है! एक प्राचीन समय की प्रचलित शिक्षा पेलाजियनिज्म की तरफ लौटना जो यह सिखाती है कि खोये हुये व्यक्ति किसी क्रिया या शब्द दोहराने के द्वारा उद्वार प्राप्त कर सकते हैं मैं इसे ''जादुई प्रार्थना'' कहता हूं। यह मसीही होने के स्थान पर ''जादुई'' अधिक है। जादू में आप कुछ शब्द कहते हैं कुछ नियत क्रिया करते हैं उन शब्दों के उच्चारण और क्रियाशीलता का परिणाम अलौकिक हो जाता है। जादुगरनी दिव्य मां ने अपनी जादुई छडी हिलायी और कहा‚ ''बिबिडी बोबिडी बू'' और सिंड्रैला के लिये कददू से शानदार रथ तैयार हो गया! पर हृदय परिवर्तन किसी डिज्नी कार्टून में देखे गये ''जादू'' जैसा नहीं है! वाल्ट डिज्नी जादू में रूचि रखते थे जैसे ''फैटेंसिया'' की ''सार्सरस ऐप्रेंटाइस'' में नाचती झाडूयें! इसमें डिज्नी कार्टून के जैसी ही विशेषताएं हैं। हमारे आज के आधुनिक इवेंजलीकल विचार भी तो परिवर्तन को ऐसा ही समझते हैं! इस समस्या के परिक्षण के लिये डेविड माल्कम बैनेट की पुस्तक पढे‚ दि सिनर्स प्रेयर: इटस आरिजिन एंड डेंजर्स‚ इवन बिफोर पब्लिशिंग‚ एन डी अमेजन पर उपलब्ध।

हर सच्चा परिवर्तन एक आश्चर्यकर्म है। मेरे साथ मरकुस १०:२६ निकालिये। यह स्कोफील्ड स्टडी बाइबल के पेज १०५९ पर पाया जाता है।

''वे बहुत ही चकित होकर आपस में कहने लगे तो फिर किस का उद्धार हो सकता है? यीशु ने उन की ओर देखकर कहा‚ मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता‚ परन्तु परमेश्वर से हो सकता है; क्योंकि परमेश्वर से सब कुछ हो सकता है...'' (मरकुस १०:२६‚२७)

तब उन्होंने पूछा‚ ''तो फिर किसका उद्वार हो सकता है?'' यीशु ने उत्तर दिया‚ ''मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता'' मनुष्य अपनी पापमय दशा में ऐसा कुछ नहीं कर सकता कि उसे छुटकारा मिले या वह अपनी स्वयं की सहायता करे जिससे उसे पापों से छुटकारा मिल सके! परंतु आगे यीशु कहते हैं कि‚ ''परन्तु परमेश्वर से हो सकता है; क्योंकि परमेश्वर से सब कुछ हो सकता है।'' किसी व्यक्ति का उद्वार होना परमेश्वर की ओर से आश्चर्यकर्म है! हमने इस साल कई परिवर्तन देखें उनमें से दो तो पिछले रविवार और एक आज सुबह। हर सच्चा परिवर्तन परमेश्वर की ओर से आश्चर्यकर्म है। पॉल कुक ने सही कहा था‚ ''आत्मिक जाग्रति भी कोई अलग चीज नहीं है यह भी आम दिनों में पवित्र आत्मा के कार्य करने जैसी ही है सिर्फ उस समय पवित्र आत्मा की तीव्रता और विस्तार बढ जाता है'' (फायर फ्राम हैवन‚ इपी बुक्स‚ २००९‚ पेज ११७)

जब एक व्यक्ति परिवर्तित होता है तो यह परमेश्वर की ओर से एक आश्चर्यकर्म होता है। जब कई लोग थोडे ही समय में परिवर्तित होते हैं तो यह परमेश्वर की ओर से एक आश्चर्यकर्म होता है। केवल अंतर पडता है ''पवित्र आत्मा की तीव्रता और विस्तार से'' जब हम आत्मिक जागरण के लिये प्रार्थना करते हैं तो हम पवित्र आत्मा को कई लोगों के दिलों में एक साथ कार्य करने के लिये मांगते हैं।

पवित्र आत्मा परिवर्तन में क्या करता है? पहला‚ ''तो जब वह आयेगा तो पाप के विषय में.......(निरूत्तर) करेगा'' (यूहन्ना १६:८) पॉल कुक ने कहा था‚ ''कि लोग स्वाभाविक तौर पर कभी पाप के प्रति बोध से नहीं भरते; वे स्वभाव से स्वयं को सही ठहराते हैं। आत्मा के द्वारा विशेष कार्य किये जाने की आवश्यकता होती है। जब आत्मा कार्य करता है तो पाप घृणास्पद (विकराल‚ डरावना) लगने लगता है‚ कि एक व्यक्ति की इच्छा हो जाती है कि वह इसे त्याग दे।'' एक लडकी ने कहा था‚ ''कि मुझे अपने आप से अरूचि पैदा हो गई थी।'' अगर आप को अपने पाप के प्रति थोडा सा भी बोध नहीं उपजता‚ तो आप को सच्चे परिवर्तन का अहसास नहीं हो सकता। तो हमें ऐसी प्रार्थना करना आवश्यक है कि जो लोग बचाये हुये नहीं हैं उनको पवित्र आत्मा पापों का बोध दे चाहिये।

परिवर्तन में जो दूसरी बात पवित्र आत्मा करता हैं कि जो व्यक्ति पाप के बोध में होता है उसे मसीह को जानने देने का अवसर देना। यीशु ने कहा था‚ “वह मेरी महिमा करेगा, क्योंकि वह मेरी बातों में से लेकर तुम्हें बताएगा।'' (यूहन्ना १६:१४) एक आधुनिक अनुवाद इसे इस तरह बताता है‚ “वह...... मुझमें से लेगा और तुम पर प्रगट करेगा।'' एक भटका हुआ आदमी कभी भी मसीह को नहीं जान सकता जब तक कि पवित्र आत्मा उस पर मसीह को प्रगट न करे। अगर तुम्हें पापों का बोध नहीं हुआ है तो उद्वार पाने के लिये पवित्र आत्मा यीशु को तुम्हारे सामने प्रगट नहीं करेगा।

तो‚ जब हम प्रार्थना करते हैं कि पवित्र आत्मा सामर्थ के साथ उतर आये हम परमेश्वर से विनती करते हैं कि (१) वह पवित्र आत्मा इसलिये भेजे ताकि भटके हुये व्यक्ति को अपने पापमय स्वभाव का बोध हो (२) हमें अवश्य प्रार्थना करना चाहिये कि परमेश्वर पिता उस व्यक्ति के सामने मसीह को प्रगट करे ताकि वह व्यक्ति मसीह के रक्त की उस सामर्थ को जान सके जो उसके पापों को शुद्ध करने में समर्थ है। यूहन्ना के १६ वें अध्याय में जैसा प्रगट है कि पवित्र आत्मा के दो प्रमुख कार्य हैं कि पापों का बोध करवाये और मसीह के रक्त से पापों को शुद्ध होने दें। यही सच्चे परिवर्तन में होता है। ब्रायन एच एडवर्ड ने कहा था‚ “कि आज भी बहुत से मसीही इस बात को नहीं जानते कि आत्मिक जागरण के लिये प्रार्थना करते समय क्या कहना है'' (ब्रायन एच एडवर्ड‚ रिवाइवल‚ इवेंजलीकल प्रेस‚ २००४ संस्करण‚ पेज ८०)

एक कारण यह भी है कि आज मसीही यह नहीं जानते कि क्या प्रार्थना करना है क्योंकि वे इसकी आवश्यकता ही महसूस नहीं करते कि भटके हुये लोगों को उनके पापों का बोध हो‚ और वे यह भी नहीं मानते कि जैसा हमारे पूर्वज विश्वास करते थे कि व्यक्ति “संकट स्थिति परिवर्तन'' भी होता है। लेकिन मैने आपसे कहा है कि आप को पवित्र आत्मा के उतर आने के लिये प्रार्थना करना चाहिये और जो खोये हुये लोग चर्च में आ रहे हैं उनके परिवर्तन के लिये प्रार्थना करें। अगर उन्हें पाप का बोध नहीं होता है तो वे बचाये नहीं जायेंगे। यद्यपि कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन वे थोडे हैं। एक ही उदाहरण जो मैं बाइबल में लूका के उन्नीसवें अध्याय में पाता हूं जिसमें जक्कई का परिवर्तन होता है। बाइबल में हम उसे रोते हुये नहीं देखते हैं‚ जो सच्चे परिवर्तन में होता ही है। तौभी जक्कई ने वायदा किया कि वह अपनी आधी संपत्ति कंगालों को दे देगा और जिससे जो लूटा है उसे चार गुना अधिक भर देगा। यह प्रगट करता है कि उसे अपने पापों का बोध हुआ है! मैं सोचता हूं कि जक्कई का परिवर्तन इस बात को प्रगट करता है कि कुछ लोग थोडे लोग बिना आंसू बहाये पापों से पश्चाताप करते हैं। जबकि जैसा प्राय: आत्मिक जागरण में होता है लोग आंसू बहाते हैं पापों से पश्चाताप करते हैं।

एक और दूसरा कारण जो इवेंजलीकल नहीं जानते कि किस बात के लिये प्रार्थना करना है क्योंकि अधिकतर इवेंजलीकल आजकल विश्वास ही नहीं करते हैं कि “संकट स्थिति परिवर्तन'' भी होता है जैसा हमारे पूर्वज मानते थे। हमारे पूर्वज कहते थे कि एक मनुष्य जो पापों के बोध में है वह “जाग्रत अवस्था'' में है पर अभी उसका उद्वार नहीं हुआ है। हमारे पूर्वज कहते थे कि एक जाग्रत मनुष्य को पाप से मुंह मोडने की पीडा में से होकर गुजरना पडता है‚ जैसे बच्चे को जन्म देते समय मां जच्चा पीडा में से होकर गुजरती है। केवल इसी तरह से जैसे हमारे पूर्वज कहते आये‚ तभी एक मनुष्य उद्वार का अनुभव कर सकता है (पिलगिम प्रोग्रेस में “मसीही'' का परिवर्तन)

मैं डॉ मार्टिन ल्योड जोंस से सहमत हूं जब उन्होंने कहा कि शिष्य पौलुस रोमियों ७ के अंतिम दो पदों में सच्चे परिवर्तन के दो उदाहरण देता है। डॉ मार्टिन ल्योड जोंस कहते हैं कि ये आयतें स्वयं पौलुस के परिवर्तन के बारे में कहती हैं। मैं सहमत हूं। पौलुस ने कहा था‚

“मैं कैसा अभागा मनुष्य हूं! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?'' (रोमियों ७:२४)

यही बोध कहलाता है! − जब पापी स्वयं से हताश हो जाता है और जिस पापमय मन ने उसे बंधक बना रखा है उस पर से उसकी आशायें टूट जाती हैं। परंतु तब पौलुस ने कहा‚

“मैं अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का धन्यवाद करता हूं'' (रोमियों ७:२५)

यही बोध कहलाता है − जब उत्पीड़ित पापी जन यीशु मसीह हमारे प्रभु द्वारा छुडाया जाता है! तो इस तरह‚ पहली बार‚ पापी जन ‚ जिसे यह बोध हुआ है कि वह पाप के कारण आशारहित हो चुका है अब यीशु की ओर मुडता है और उसके पाप उनके लहू से शुद्व किये जाते हैं। हमारे यहां की सबसे अधिक त्रासदायक बात यह है कि कई इवेंजलीकल्स किसी भी पापी जन को इन दो महत्वपूर्ण अनुभवों से होकर गुजरने ही नहीं देना चाहते। पापी जन के विवेक में एक जरा सी दर्द की लहर उठी‚ या कई बार तो वह भी नहीं उठती हो‚ और निर्णय करवाने वाला उन्हें पापियों के द्वारा दोहराये जाने वाली प्रार्थना करने को कह देता है। मैं मानता हूं कि यही एकमात्र कारण हैं कि अमेरिका में १८५९ से देश में परिवर्तन लाने वाला आत्मिक जागरण नहीं आया है।

तो‚ ये इतनी सारी बातें हैं जिनके लिये आप को प्रार्थना करना चाहिये अगर आप चाहते हैं कि हमारे चर्च में आत्मिक जाग्रति का प्रसार हो। पहले स्थान पर‚ जो आवश्यक बात है कि परमेश्वर की आत्मा के लिये प्रार्थना करे कि वह पापी के मन में उडेला जाये और उसे अपने पाप का अहसास हो। दूसरी जो आवश्यक बात हैं‚ कि प्रार्थना में लगे रहिये कि आत्मा उन लोगों के मन में यीशु को प्रगट करे और वे उनके समीप खिचें चले आयें‚ ताकि वे यीशु की कूस पर मृत्यु से पापों की क्षमा प्राप्त करें और उनके बहाये गये बेशकीमती लहू से अपने पापों को शुद्व करे!

पास्टर ब्रायन एच एडवर्ड ने कहा था कि “आत्मिक जाग्रति के लिये की गई प्रार्थनायें परिवर्तितजन‚ प्रबुद्ध (जाग्रत) और अप्रबुद्ध दोनो पर केंद्रित होती हैं'' (रिवाइवल‚ इवेंजलीकल प्रेस‚ २००४ संस्करण‚ पेज १२७) आत्मिक जाग्रति के लिये की गई प्रार्थनायें “परिवर्तित'' वैसे ही “प्रबुद्ध'' और “अप्रबुद्ध'' दोनो पर क्यों केंद्रित होती हैं? क्योंकि जो परिवर्तित हुये है वे पुन: पाप में गिर सकते हैं। पहले तो बैपटिस्ट चर्च में आत्मिक जाग्रति उन बचाये गये लोगों के मन में प्रारंभ हुई जिनके मन में पाप था। वे अपने पाप‚ सबके समक्ष खुलकर आंसुओं में भरकर‚ मानने लगे। किसी के मन में चर्च में अन्य लोगों के प्रति दुर्भावना थी। किसी ने गुप्त पापों को अपने जीवन में आने दिया। उन्होंने अपने पापों की उपेक्षा की और कहा कि इन से कोई अंतर नहीं पडता। पर जब पवित्र आत्मा उतर आया तो उनके मन छिद गये। उन्होंने माना कि वे अपनी प्रार्थनाओं में ठंडे और निष्प्राण थे। उन्होंने माना कि वे चर्च में अन्य लोगों के प्रति कडवाहट और गुस्से से भरे हुये थे। कुछ लोगों ने वह करने से इंकार किया जो वे जानते थे कि परमेश्वर उनसे करवाना चाहता था।

एक बार एक आत्मिक जागरण सभा में “एक बडा (मजबूत) माने जाने वाला इवेंजलिस्ट अपने हाथों को मरोड रहा था‚ और उसके आंसु फर्श पर गिर रहे थे। वह कई लोगों को मसीह के (पास) लेकर आया था.....किंतु उसके जीवन में स्वयं एक पाप आ गया था जो उसे व्यथित किये हुये था और जब तक उसने चर्च के सामने नहीं (मान लिया) उसे शांति नहीं मिली उसकी स्वीकारोक्ति सुनकर लोगों को मानो धक्का लगा और वे भी फर्श पर गिरकर पश्चाताप करने लगे।'' (ब्रायन एडवर्ड‚ रिवाइवल: ए पीपल सेचुरेटेड विथ गॉड‚ इवेंजलीकल प्रेस‚ १९९१ संस्करण‚ पेज २६१)''

हमारे चर्च में कोई मसीही जन ऐसा हो सकता है जो किसी बात पर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने से इंकार कर सकता है। यह आत्मिक जाग्रति की राह में रूकावट बनता है! जब केंटूकी के विलमोर में आँसबरी कालेज में‚ १९७० में आत्मिक जागरण आया तो सैकडों विद्यार्थी सच्चे रूप में परिवर्तित हुये और उन्होंने यह माना कि उन्हें लोगों के समक्ष.....पाप के स्वीकारोक्ति की आवश्यकता है। वे पंक्ति में खडे रहते थे कभी कभी तो घंटो घंटो तक खडे रहते थे चैपल में माइक्रोफ़ोन के इंतजार में कि उनकी बारी आये और वे अपनी (अनाज्ञाकारिता) को स्वीकार सके.....और प्रार्थना किये जाने के लिये कह सके।

आँसबरी में जो व्यक्ति सभा ले रहे थे उन्होंने प्रचार नहीं किया। बल्कि‚ संक्षिप्त में अपनी गवाही दी‚ और फिर छात्रों को आमंत्रण दिया कि वे अपने मसीहत संबंधी अनुभवों को बांटे। उसके बाद दूसरा आता गया‚ फिर दूसरा आया। उन्होंने बताया कि‚ “फिर तो वे वेदी पर उमडने लगे।'' “उनके हृदय अपनी बात उडेलने लगे।'' धीरे धीरे‚ बिना किसी स्पष्टीकरण के‚ छात्र और शिक्षक चुपचाप प्रार्थना करते हुये‚ रोते हुये‚ या गीत गाते हुये पाये गये। वे उन लोगो को ढूंढने लगे जिनके प्रति उन्होने गलत किया था और क्षमा मांगी। यह सभा आठ दिन तक चली (दिन भर २४ घंटे)।

जैसा आँसबरी के आत्मिक जागरण में हुआ उसी समय फर्स्ट चाइनीज बैपटिस्ट चर्च में भी ठीक वैसा ही हुआ। यहां भी सभा घंटों तक चली‚ युवा चाइनीज आये और पापों की स्वीकारोक्ति की और प्रार्थना की। १९१० की कोरिया के आत्मिक जागरण में लोगों के समक्ष पापांगीकार आम बात थी। आज भी चीन में जहां महान आत्मिक जागरण जारी है‚ मसीहियों द्वारा रोते हुये‚ स्वीकारोक्ति करना‚ आम बात है। १९०५ की वेल्श की आत्मिक जाग्रति में मुखिया बने इवान राबर्ट ने जब परमेश्वर के सामने समर्पण किया था तो वे रो पडे थे कि‚ “प्रभु‚ मुझे नम्र बनाइये।'' आज आप का क्या हाल है? क्या आप परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे कि वह आपको नम्र बनाये? मेरे साथ गाइये “परमेश्वर मुझे खोजिये।''

“परमेश्वर‚ मुझे खोजिये‚ मेरे मन को देखिये:
मुझ पर दया कीजिये मेरे विचारों को जानिये:
मेरे हृदय को जानिये;
मुझ पर दया कीजिये मेरे विचारों को जानिये;
मेरे मन की दुष्टता का निकाल कीजिये‚
मुझे अनंत के मार्ग पर ले चलिये।''
(भजन १३९:२३‚२४)

जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ नीचे उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।
जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ नीचे उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।
हमें नम्र बनायें‚ ढालिये‚ तोडिये‚ झुकाइये।
जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ नीचे उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।

अगर परमेश्वर आत्मिक जाग्रति में अपने आत्मा को भेजते हैं तो यह हमारे चर्च में भी हो सकता है। “परमेश्वर मुझे खोजिये'' इसे धीरे स्वरों में गाइये।

“परमेश्वर‚ मुझे खोजिये‚ मेरे मन को देखिये:
मुझ पर दया कीजिये मेरे विचारों को जानिये:
मेरे हृदय को जानिये;
मुझ पर दया कीजिये मेरे विचारों को जानिये;
मेरे मन की दुष्टता का निकाल कीजिये‚
मुझे अनंत के मार्ग पर ले चलिये।''
(भजन १३९:२३‚२४)

आमीन।

कृपया प्रेरितों के काम १८ निकाल लेंवे। यह स्कोफील्ड बाइबल में पेज ११४८ पर मिलता है। जब मैं पढता हूं कृपया‚ आप खडे हो जाइये। ये वे शिक्षायें हैं जो मसीह ने प्रथम कहलाये जाने वाले मसीहियों को दी थी‚

''परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ पाओगे; और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में‚ और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।'' (प्रेरितों के काम १:८)

अब आप बैठ सकते हैं।

कुछ प्रचारक कहते हैं कि यह पेंतुकुस्त के दिन पवित्र आत्मा उडेले जाने के लिये ही संकेत देता है। वे कहते हैं कि अब हम पवित्र आत्मा को उस रूप में आने के लिये नहीं सोच सकते हैं। कई लोग तो डरते हैं कि अगर आज पवित्र आत्मा उसी रूप में उतर आये तो उनके लोग पेंटीकोस्टल हो जायेंगे। इसलिये वे पाप बोध और परिवर्तन को होने देने से बचते हैं क्योंकि वे पेंटीकोस्टलिज्म से डरते हैं। परंतु वे गलत हैं जब वे सोचते हैं कि आज हमारे समय में पवित्र आत्मा उतर कर नहीं आ सकता। हमारे आज के पद के अंतिम आठ शब्द प्रदर्शित करते हैं कि वे गलत हैं क्योंकि यहां ऐसा लिखा है‚ ''और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।'' एक आधुनिक अनुवाद इसे ऐसा लिखता है कि‚ ''संसार के दूरस्थ क्षेत्रों तक मेरे साक्षी ठहरेंगे।'' चूंकि वे प्रारंभिक मसीही ''दूरस्थ'' और ''संसार के छोर'' तक नहीं जा सकते थे इसलिये यह बात यीशु सारे मसीहियों के लिये एवं सब समयों के लिये के लिये कह रहे थे। उन्होने उनसे और हमसे कहा कि‚ ''जब पवित्र आत्मा तुम पर आयेगा तो तुम सामर्थ पाओगे।'' पतरस ने थोडे बाद में जो प्रेरितो के कार्य २:३९ में कहा‚ यह वहां पर सिद् होता है। हम इसे निकालेंगे।

''क्योंकि यह प्रतिज्ञा (पवित्र आत्मा की) तुम‚ और तुम्हारी सन्तानों‚ और उन सब दूर दूर के लोगों के लिये भी है जिन को प्रभु हमारा परमेश्वर अपने पास बुलाएगा।'' (प्रेरितो के कार्य २:३९)

इसलिये चेले यरूशलेम गये‚ और उपर के कमरे में जाकर प्रार्थना करने लगे। वे किसलिये प्रार्थना कर रहे थे? वे पवित्र आत्मा की सामर्थ पाने के लिये प्रार्थना कर रहे थे जैसा प्रभु यीशु ने उनसे कहा था‚ ''जब पवित्र आत्मा तुम पर आयेगा तो तुम सामर्थ पाओगे।'' (प्रेरितो के कार्य १:८) मैं आयन एच मरे से बिल्कुल सहमत हूं। उन्होंने कहा था‚

पेंतुकुस्त ने एक नये युग की शुरूआत की मसीह द्वारा आत्मा के उडेले जाने का कार्य फिर कभी बंद नहीं हुआ। पवित्र आत्मा का पूर्ण संबंध संपूर्ण जो (मसीही) युग को चिंहिंत करता है‚ जो पेंतुकुस्त के दिन‚ प्रारंभ हुआ था इसे स्थायी और अपरिवर्तनशील नहीं रहना था; क्योंकि अगर ऐसा होता‚ तो जैसा चेलो को बताया गया था तो उनके अधिकाधिक पवित्र आत्मा के मांगने से कौनसा उददेश्य सिद् होता? जब यह निवेदन किया गया कि ‘हमें प्रार्थना करना सिखा’ तो यीशु ने कहा‚ ''सो जब तुम बुरे होकर अपने लड़के-बालों को अच्छी वस्तुएं देना जानते हो, तो स्वर्गीय पिता अपने मांगने वालों को पवित्र आत्मा क्यों न देगा'' (लूका ११:१३) यह प्रतिज्ञा तब तक प्रासंगिक नहीं होगी जब तक मसीहियों द्वारा और अधिक आत्मा प्राप्त करने की चाह न हो। (आयन एच मरे, पेंटीकोस्ट टूडे? दि बिब्लीकल अंडरस्टैंडिंग आँफ रिवाइवल, दि बैनर आँफ ट्रूथ ट्रस्ट, १९९८, पेज २१)

ऐलेक्सजेंडर मूडी स्टूअर्ट ने कहा था‚ ''जबकि पवित्र आत्मा उनके चर्च में सदा उपस्थित रहता है, तो ऐसा होता है कि वह अधिकाधिक पिता के समीप खिंचे चले आते हैं और उन्हें अधिकाधिक सामर्थ मिलता है'' (मरे, पूर्वोक्त, पेज २२)

पर हमने १८५९ की आत्मिक जाग्रति के बाद यह बहुत कम देखा है सच में बहुत ही कम। मैं इस बात पर राजी हूं कि बहुत से इवेंजलीकल्स यह नहीं मानते कि परिवर्तन होना आश्चर्यकर्म हैं। कई इवेंजलीकल्स आज भी सोचते हैं कि परिवर्तन होना और कुछ नहीं परंतु मानवीय निर्णय है। वे सोचते हैं कि हमें सिर्फ इतना करना है कि भटके हुये व्यक्ति से ''पापियों की प्रार्थना'' दोहरवाना है। बस उन शब्दों को कहो और आप बच जायेंगे! जोएल आस्टीन हर संदेश के अंत में यही कहते हैं। उनके पास लोग हैं जो यह प्रार्थना दोहरवाते हैं। तब वह कहते हैं कि‚ ''हम विश्वास करते हैं कि अगर आपने ये शब्द कहे हैं तो आपका नया जन्म हो चुका है।'' आप पायेंगे कि उन लोगों को पवित्र आत्मा की कोई आवश्यकता ही नहीं कि वह कोई आश्चर्यकर्म करे! अगर आपने ये शब्द दोहरायें हैं ''तो आपका नया जन्म हो चुका।''

यह एक प्राचीन समय की प्रचलित शिक्षा पेलाजियनिज्म की तरफ लौटना है − यह सिद्धांत सिखाता है कि मनुष्य अपना उद्वार स्वयं ला सकता है − और इस उदाहरण में तो कुछ शब्दों को दोहराने के द्वारा ला सकता है! या एक मसीही आराधना में ''आगे आने'' के द्वारा − या हाथ उंचा करने के द्वारा ला सकता है! ''आप में से जो बचना चाहते हैं हाथ उंचा करें'' यह फूहड़ पेलाजियनिज्म है! एक प्राचीन समय की प्रचलित शिक्षा पेलाजियनिज्म की तरफ लौटना जो यह सिखाती है कि खोये हुये व्यक्ति किसी क्रिया या शब्द दोहराने के द्वारा उद्वार प्राप्त कर सकते हैं मैं इसे ''जादुई प्रार्थना'' कहता हूं। यह मसीही होने के स्थान पर ''जादुई'' अधिक है। जादू में आप कुछ शब्द कहते हैं कुछ नियत क्रिया करते हैं उन शब्दों के उच्चारण और क्रियाशीलता का परिणाम अलौकिक हो जाता है। जादुगरनी दिव्य मां ने अपनी जादुई छडी हिलायी और कहा‚ ''बिबिडी बोबिडी बू'' और सिंड्रैला के लिये कददू से शानदार रथ तैयार हो गया! पर हृदय परिवर्तन किसी डिज्नी कार्टून में देखे गये ''जादू'' जैसा नहीं है! वाल्ट डिज्नी जादू में रूचि रखते थे जैसे ''फैटेंसिया'' की ''सार्सरस ऐप्रेंटाइस'' में नाचती झाडूयें! इसमें डिज्नी कार्टून के जैसी ही विशेषताएं हैं। हमारे आज के आधुनिक इवेंजलीकल विचार भी तो परिवर्तन को ऐसा ही समझते हैं! इस समस्या के परिक्षण के लिये डेविड माल्कम बैनेट की पुस्तक पढे‚ दि सिनर्स प्रेयर: इटस आरिजिन एंड डेंजर्स‚ इवन बिफोर पब्लिशिंग‚ एन डी अमेजन पर उपलब्ध।

हर सच्चा परिवर्तन एक आश्चर्यकर्म है। मेरे साथ मरकुस १०:२६ निकालिये। यह स्कोफील्ड स्टडी बाइबल के पेज १०५९ पर पाया जाता है।

''वे बहुत ही चकित होकर आपस में कहने लगे तो फिर किस का उद्धार हो सकता है? यीशु ने उन की ओर देखकर कहा‚ मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता‚ परन्तु परमेश्वर से हो सकता है; क्योंकि परमेश्वर से सब कुछ हो सकता है...'' (मरकुस १०:२६‚२७)

तब उन्होंने पूछा‚ ''तो फिर किसका उद्वार हो सकता है?'' यीशु ने उत्तर दिया‚ ''मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता'' मनुष्य अपनी पापमय दशा में ऐसा कुछ नहीं कर सकता कि उसे छुटकारा मिले या वह अपनी स्वयं की सहायता करे जिससे उसे पापों से छुटकारा मिल सके! परंतु आगे यीशु कहते हैं कि‚ ''परन्तु परमेश्वर से हो सकता है; क्योंकि परमेश्वर से सब कुछ हो सकता है।'' किसी व्यक्ति का उद्वार होना परमेश्वर की ओर से आश्चर्यकर्म है! हमने इस साल कई परिवर्तन देखें उनमें से दो तो पिछले रविवार और एक आज सुबह। हर सच्चा परिवर्तन परमेश्वर की ओर से आश्चर्यकर्म है। पॉल कुक ने सही कहा था‚ ''आत्मिक जाग्रति भी कोई अलग चीज नहीं है यह भी आम दिनों में पवित्र आत्मा के कार्य करने जैसी ही है सिर्फ उस समय पवित्र आत्मा की तीव्रता और विस्तार बढ जाता है'' (फायर फ्राम हैवन‚ इपी बुक्स‚ २००९‚ पेज ११७)

जब एक व्यक्ति परिवर्तित होता है तो यह परमेश्वर की ओर से एक आश्चर्यकर्म होता है। जब कई लोग थोडे ही समय में परिवर्तित होते हैं तो यह परमेश्वर की ओर से एक आश्चर्यकर्म होता है। केवल अंतर पडता है ''पवित्र आत्मा की तीव्रता और विस्तार से'' जब हम आत्मिक जागरण के लिये प्रार्थना करते हैं तो हम पवित्र आत्मा को कई लोगों के दिलों में एक साथ कार्य करने के लिये मांगते हैं।

पवित्र आत्मा परिवर्तन में क्या करता है? पहला‚ ''तो जब वह आयेगा तो पाप के विषय में.......(निरूत्तर) करेगा'' (यूहन्ना १६:८) पॉल कुक ने कहा था‚ ''कि लोग स्वाभाविक तौर पर कभी पाप के प्रति बोध से नहीं भरते; वे स्वभाव से स्वयं को सही ठहराते हैं। आत्मा के द्वारा विशेष कार्य किये जाने की आवश्यकता होती है। जब आत्मा कार्य करता है तो पाप घृणास्पद (विकराल‚ डरावना) लगने लगता है‚ कि एक व्यक्ति की इच्छा हो जाती है कि वह इसे त्याग दे।'' एक लडकी ने कहा था‚ ''कि मुझे अपने आप से अरूचि पैदा हो गई थी।'' अगर आप को अपने पाप के प्रति थोडा सा भी बोध नहीं उपजता‚ तो आप को सच्चे परिवर्तन का अहसास नहीं हो सकता। तो हमें ऐसी प्रार्थना करना आवश्यक है कि जो लोग बचाये हुये नहीं हैं उनको पवित्र आत्मा पापों का बोध दे चाहिये।

परिवर्तन में जो दूसरी बात पवित्र आत्मा करता हैं कि जो व्यक्ति पाप के बोध में होता है उसे मसीह को जानने देने का अवसर देना। यीशु ने कहा था‚ “वह मेरी महिमा करेगा, क्योंकि वह मेरी बातों में से लेकर तुम्हें बताएगा।'' (यूहन्ना १६:१४) एक आधुनिक अनुवाद इसे इस तरह बताता है‚ “वह...... मुझमें से लेगा और तुम पर प्रगट करेगा।'' एक भटका हुआ आदमी कभी भी मसीह को नहीं जान सकता जब तक कि पवित्र आत्मा उस पर मसीह को प्रगट न करे। अगर तुम्हें पापों का बोध नहीं हुआ है तो उद्वार पाने के लिये पवित्र आत्मा यीशु को तुम्हारे सामने प्रगट नहीं करेगा।

तो‚ जब हम प्रार्थना करते हैं कि पवित्र आत्मा सामर्थ के साथ उतर आये हम परमेश्वर से विनती करते हैं कि (१) वह पवित्र आत्मा इसलिये भेजे ताकि भटके हुये व्यक्ति को अपने पापमय स्वभाव का बोध हो (२) हमें अवश्य प्रार्थना करना चाहिये कि परमेश्वर पिता उस व्यक्ति के सामने मसीह को प्रगट करे ताकि वह व्यक्ति मसीह के रक्त की उस सामर्थ को जान सके जो उसके पापों को शुद्ध करने में समर्थ है। यूहन्ना के १६ वें अध्याय में जैसा प्रगट है कि पवित्र आत्मा के दो प्रमुख कार्य हैं कि पापों का बोध करवाये और मसीह के रक्त से पापों को शुद्ध होने दें। यही सच्चे परिवर्तन में होता है। ब्रायन एच एडवर्ड ने कहा था‚ “कि आज भी बहुत से मसीही इस बात को नहीं जानते कि आत्मिक जागरण के लिये प्रार्थना करते समय क्या कहना है'' (ब्रायन एच एडवर्ड‚ रिवाइवल‚ इवेंजलीकल प्रेस‚ २००४ संस्करण‚ पेज ८०)

एक कारण यह भी है कि आज मसीही यह नहीं जानते कि क्या प्रार्थना करना है क्योंकि वे इसकी आवश्यकता ही महसूस नहीं करते कि भटके हुये लोगों को उनके पापों का बोध हो‚ और वे यह भी नहीं मानते कि जैसा हमारे पूर्वज विश्वास करते थे कि व्यक्ति “संकट स्थिति परिवर्तन'' भी होता है। लेकिन मैने आपसे कहा है कि आप को पवित्र आत्मा के उतर आने के लिये प्रार्थना करना चाहिये और जो खोये हुये लोग चर्च में आ रहे हैं उनके परिवर्तन के लिये प्रार्थना करें। अगर उन्हें पाप का बोध नहीं होता है तो वे बचाये नहीं जायेंगे। यद्यपि कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन वे थोडे हैं। एक ही उदाहरण जो मैं बाइबल में लूका के उन्नीसवें अध्याय में पाता हूं जिसमें जक्कई का परिवर्तन होता है। बाइबल में हम उसे रोते हुये नहीं देखते हैं‚ जो सच्चे परिवर्तन में होता ही है। तौभी जक्कई ने वायदा किया कि वह अपनी आधी संपत्ति कंगालों को दे देगा और जिससे जो लूटा है उसे चार गुना अधिक भर देगा। यह प्रगट करता है कि उसे अपने पापों का बोध हुआ है! मैं सोचता हूं कि जक्कई का परिवर्तन इस बात को प्रगट करता है कि कुछ लोग थोडे लोग बिना आंसू बहाये पापों से पश्चाताप करते हैं। जबकि जैसा प्राय: आत्मिक जागरण में होता है लोग आंसू बहाते हैं पापों से पश्चाताप करते हैं।

एक और दूसरा कारण जो इवेंजलीकल नहीं जानते कि किस बात के लिये प्रार्थना करना है क्योंकि अधिकतर इवेंजलीकल आजकल विश्वास ही नहीं करते हैं कि “संकट स्थिति परिवर्तन'' भी होता है जैसा हमारे पूर्वज मानते थे। हमारे पूर्वज कहते थे कि एक मनुष्य जो पापों के बोध में है वह “जाग्रत अवस्था'' में है पर अभी उसका उद्वार नहीं हुआ है। हमारे पूर्वज कहते थे कि एक जाग्रत मनुष्य को पाप से मुंह मोडने की पीडा में से होकर गुजरना पडता है‚ जैसे बच्चे को जन्म देते समय मां जच्चा पीडा में से होकर गुजरती है। केवल इसी तरह से जैसे हमारे पूर्वज कहते आये‚ तभी एक मनुष्य उद्वार का अनुभव कर सकता है (पिलगिम प्रोग्रेस में “मसीही'' का परिवर्तन)

मैं डॉ मार्टिन ल्योड जोंस से सहमत हूं जब उन्होंने कहा कि शिष्य पौलुस रोमियों ७ के अंतिम दो पदों में सच्चे परिवर्तन के दो उदाहरण देता है। डॉ मार्टिन ल्योड जोंस कहते हैं कि ये आयतें स्वयं पौलुस के परिवर्तन के बारे में कहती हैं। मैं सहमत हूं। पौलुस ने कहा था‚

“मैं कैसा अभागा मनुष्य हूं! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?'' (रोमियों ७:२४)

यही बोध कहलाता है! − जब पापी स्वयं से हताश हो जाता है और जिस पापमय मन ने उसे बंधक बना रखा है उस पर से उसकी आशायें टूट जाती हैं। परंतु तब पौलुस ने कहा‚

“मैं अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का धन्यवाद करता हूं'' (रोमियों ७:२५)

यही बोध कहलाता है − जब उत्पीड़ित पापी जन यीशु मसीह हमारे प्रभु द्वारा छुडाया जाता है! तो इस तरह‚ पहली बार‚ पापी जन ‚ जिसे यह बोध हुआ है कि वह पाप के कारण आशारहित हो चुका है अब यीशु की ओर मुडता है और उसके पाप उनके लहू से शुद्व किये जाते हैं। हमारे यहां की सबसे अधिक त्रासदायक बात यह है कि कई इवेंजलीकल्स किसी भी पापी जन को इन दो महत्वपूर्ण अनुभवों से होकर गुजरने ही नहीं देना चाहते। पापी जन के विवेक में एक जरा सी दर्द की लहर उठी‚ या कई बार तो वह भी नहीं उठती हो‚ और निर्णय करवाने वाला उन्हें पापियों के द्वारा दोहराये जाने वाली प्रार्थना करने को कह देता है। मैं मानता हूं कि यही एकमात्र कारण हैं कि अमेरिका में १८५९ से देश में परिवर्तन लाने वाला आत्मिक जागरण नहीं आया है।

तो‚ ये इतनी सारी बातें हैं जिनके लिये आप को प्रार्थना करना चाहिये अगर आप चाहते हैं कि हमारे चर्च में आत्मिक जाग्रति का प्रसार हो। पहले स्थान पर‚ जो आवश्यक बात है कि परमेश्वर की आत्मा के लिये प्रार्थना करे कि वह पापी के मन में उडेला जाये और उसे अपने पाप का अहसास हो। दूसरी जो आवश्यक बात हैं‚ कि प्रार्थना में लगे रहिये कि आत्मा उन लोगों के मन में यीशु को प्रगट करे और वे उनके समीप खिचें चले आयें‚ ताकि वे यीशु की कूस पर मृत्यु से पापों की क्षमा प्राप्त करें और उनके बहाये गये बेशकीमती लहू से अपने पापों को शुद्व करे!

पास्टर ब्रायन एच एडवर्ड ने कहा था कि “आत्मिक जाग्रति के लिये की गई प्रार्थनायें परिवर्तितजन‚ प्रबुद्ध (जाग्रत) और अप्रबुद्ध दोनो पर केंद्रित होती हैं'' (रिवाइवल‚ इवेंजलीकल प्रेस‚ २००४ संस्करण‚ पेज १२७) आत्मिक जाग्रति के लिये की गई प्रार्थनायें “परिवर्तित'' वैसे ही “प्रबुद्ध'' और “अप्रबुद्ध'' दोनो पर क्यों केंद्रित होती हैं? क्योंकि जो परिवर्तित हुये है वे पुन: पाप में गिर सकते हैं। पहले तो बैपटिस्ट चर्च में आत्मिक जाग्रति उन बचाये गये लोगों के मन में प्रारंभ हुई जिनके मन में पाप था। वे अपने पाप‚ सबके समक्ष खुलकर आंसुओं में भरकर‚ मानने लगे। किसी के मन में चर्च में अन्य लोगों के प्रति दुर्भावना थी। किसी ने गुप्त पापों को अपने जीवन में आने दिया। उन्होंने अपने पापों की उपेक्षा की और कहा कि इन से कोई अंतर नहीं पडता। पर जब पवित्र आत्मा उतर आया तो उनके मन छिद गये। उन्होंने माना कि वे अपनी प्रार्थनाओं में ठंडे और निष्प्राण थे। उन्होंने माना कि वे चर्च में अन्य लोगों के प्रति कडवाहट और गुस्से से भरे हुये थे। कुछ लोगों ने वह करने से इंकार किया जो वे जानते थे कि परमेश्वर उनसे करवाना चाहता था।

एक बार एक आत्मिक जागरण सभा में “एक बडा (मजबूत) माने जाने वाला इवेंजलिस्ट अपने हाथों को मरोड रहा था‚ और उसके आंसु फर्श पर गिर रहे थे। वह कई लोगों को मसीह के (पास) लेकर आया था.....किंतु उसके जीवन में स्वयं एक पाप आ गया था जो उसे व्यथित किये हुये था और जब तक उसने चर्च के सामने नहीं (मान लिया) उसे शांति नहीं मिली उसकी स्वीकारोक्ति सुनकर लोगों को मानो धक्का लगा और वे भी फर्श पर गिरकर पश्चाताप करने लगे।'' (ब्रायन एडवर्ड‚ रिवाइवल: ए पीपल सेचुरेटेड विथ गॉड‚ इवेंजलीकल प्रेस‚ १९९१ संस्करण‚ पेज २६१)''

हमारे चर्च में कोई मसीही जन ऐसा हो सकता है जो किसी बात पर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने से इंकार कर सकता है। यह आत्मिक जाग्रति की राह में रूकावट बनता है! जब केंटूकी के विलमोर में आँसबरी कालेज में‚ १९७० में आत्मिक जागरण आया तो सैकडों विद्यार्थी सच्चे रूप में परिवर्तित हुये और उन्होंने यह माना कि उन्हें लोगों के समक्ष.....पाप के स्वीकारोक्ति की आवश्यकता है। वे पंक्ति में खडे रहते थे कभी कभी तो घंटो घंटो तक खडे रहते थे चैपल में माइक्रोफ़ोन के इंतजार में कि उनकी बारी आये और वे अपनी (अनाज्ञाकारिता) को स्वीकार सके.....और प्रार्थना किये जाने के लिये कह सके।

आँसबरी में जो व्यक्ति सभा ले रहे थे उन्होंने प्रचार नहीं किया। बल्कि‚ संक्षिप्त में अपनी गवाही दी‚ और फिर छात्रों को आमंत्रण दिया कि वे अपने मसीहत संबंधी अनुभवों को बांटे। उसके बाद दूसरा आता गया‚ फिर दूसरा आया। उन्होंने बताया कि‚ “फिर तो वे वेदी पर उमडने लगे।'' “उनके हृदय अपनी बात उडेलने लगे।'' धीरे धीरे‚ बिना किसी स्पष्टीकरण के‚ छात्र और शिक्षक चुपचाप प्रार्थना करते हुये‚ रोते हुये‚ या गीत गाते हुये पाये गये। वे उन लोगो को ढूंढने लगे जिनके प्रति उन्होने गलत किया था और क्षमा मांगी। यह सभा आठ दिन तक चली (दिन भर २४ घंटे)।

जैसा आँसबरी के आत्मिक जागरण में हुआ उसी समय फर्स्ट चाइनीज बैपटिस्ट चर्च में भी ठीक वैसा ही हुआ। यहां भी सभा घंटों तक चली‚ युवा चाइनीज आये और पापों की स्वीकारोक्ति की और प्रार्थना की। १९१० की कोरिया के आत्मिक जागरण में लोगों के समक्ष पापांगीकार आम बात थी। आज भी चीन में जहां महान आत्मिक जागरण जारी है‚ मसीहियों द्वारा रोते हुये‚ स्वीकारोक्ति करना‚ आम बात है। १९०५ की वेल्श की आत्मिक जाग्रति में मुखिया बने इवान राबर्ट ने जब परमेश्वर के सामने समर्पण किया था तो वे रो पडे थे कि‚ “प्रभु‚ मुझे नम्र बनाइये।'' आज आप का क्या हाल है? क्या आप परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे कि वह आपको नम्र बनाये? मेरे साथ गाइये “परमेश्वर मुझे खोजिये।''

“परमेश्वर‚ मुझे खोजिये‚ मेरे मन को देखिये:
मुझ पर दया कीजिये मेरे विचारों को जानिये:
मेरे हृदय को जानिये;
मुझ पर दया कीजिये मेरे विचारों को जानिये;
मेरे मन की दुष्टता का निकाल कीजिये‚
मुझे अनंत के मार्ग पर ले चलिये।''
(भजन १३९:२३‚२४)

जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ नीचे उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।
जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ नीचे उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।
हमें नम्र बनायें‚ ढालिये‚ तोडिये‚ झुकाइये।
जीवित परमेश्वर की आत्मा‚ नीचे उतर आइये‚ हम प्रार्थना करते हैं।

अगर परमेश्वर आत्मिक जाग्रति में अपने आत्मा को भेजते हैं तो यह हमारे चर्च में भी हो सकता है। “परमेश्वर मुझे खोजिये'' इसे धीरे स्वरों में गाइये।

“परमेश्वर‚ मुझे खोजिये‚ मेरे मन को देखिये:
मुझ पर दया कीजिये मेरे विचारों को जानिये:
मेरे हृदय को जानिये;
मुझ पर दया कीजिये मेरे विचारों को जानिये;
मेरे मन की दुष्टता का निकाल कीजिये‚
मुझे अनंत के मार्ग पर ले चलिये।''
(भजन १३९:२३‚२४)

आमीन।


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(संदेश का अंत)
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संदेश के पूर्व ऐबेल प्रुद्योमे द्वारा धर्मशास्त्र से पढा गया: प्रेरितों के कार्य १:४−९
संदेश के पूर्व बैंजामिन किन्केड गिफिथ द्वारा एकल गान गाया गया:
''मुझे प्रार्थना करना सिखाइये'' (अल्बर्ट एस रीटज‚१८७९−१९६६)