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सच्चा परिवर्तन − २०१५ संस्करणREAL CONVERSION – 2015 EDITION द्वारा डॉ.आर.एल.हिमर्स रविवार की सुबह, ४ जनवरी, २०१५ को लॉस ऐंजीलिस के दि बैपटिस्ट टैबरनेकल में प्रचार किया गया संदेश “और कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, यदि तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे।” (मत्ती १८:३) |
प्रभु यीशु ने सीधे कहा, ''जब तक तुम न फिरो....तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे।'' इसलिये, प्रभु ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था कि आपको मन फिराने का अनुभव होना अत्यंत आवश्यक है। उन्होंने कहा अगर आपको इस परिवर्तन का अनुभव नहीं होगा ''तो तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे।''
आज सुबह मैं आपको बताने जा रहा हूं कि जिस व्यक्ति को सच्चे परिवर्तन का अनुभव होता है उसके साथ क्या होता है। ध्यान दीजिये मैंने कहा है ''सच्चा'' परिवर्तन। ''पापियों की प्रार्थना'' करने के द्वारा या दूसरे प्रकार के निर्णय लेने के द्वारा, लाखों लोगों को केवल गलत प्रकार के मन फिराने का ही अनुभव हुआ है।
हमारे चर्च में कुछ लोग हैं, मेरी पत्नी भी उसमें सम्मिलित है, जो स्पष्ट प्रचार किये गये सुसमाचार को सुनकर प्रथम बार में परिवर्तित हो गई। किंतु ये सब जवान लोग थे जो प्रभु का संदेश सुनने से पहले जीवन की परिस्थतियों से निकले हुये थे अथवा तैयार किये गये थे। कोई भी उनमें से छोटा बच्चा नहीं था। अभी तक, जितने भी सच्चे परिवर्तन, जवान लोगों के मध्य हुये वह कई सप्ताह तक और (सालों तक भी) सुसमाचार संदेश सुनने के द्वारा हुये। स्पर्जन ने कहा था, ''पहली नजर में विश्वास भी हो सकता है, किंतु प्राय: हम कई स्तरों को पार करके विश्वास तक पहुंचते हैं'' (सी. एच. स्पर्जन, अराउंड दि विकेट गेट, पिलगिम पब्लिकेशंस, १९९२ पुनमुद्रण, पेज ५७) मैं आपको आज उन ''स्तरों'' के बारे में बताउंगा जिनसे होकर लोग गुजरते हैं।
१. प्रथम, आप किसी और कारण से चर्च आते हैं और आपका परिवर्तन हो जाता है।
लगभग हर कोई पहली बार कुछ ''गलत'' कारणों के पीछे, जैसे मैंने किया था, चर्च आता है। मैं किशोरावस्था में चर्च गया था क्योंकि मेरे पडोसी ने मुझे उनके साथ चर्च आने के लिये आमंत्रित किया था। इसलिये मैंने १९५४ में चर्च आना प्रारंभ किया जब मैं बिल्कुल अकेला था और मेरे पडोसी मेरे साथ सदव्यवहार करते थे। देखा जाये तो यह कोई ''सही'' कारण नहीं था चर्च जाने के लिये, था क्या? मैं उठकर ''आगे'' भी चला गया जब मैंने पहला संदेश सुना और उसके अंत में जब सामने बुलाया, मुझे बपतिस्मा भी दे दिया गया बिना मुझे कुझ समझाये, या कारण पूछे कि मैं सामने क्यों आया। इस तरह मैं बैपटिस्ट हो गया। किंतु मैंने मन नहीं फिराया था। मैं चर्च इसलिये गया था क्यांेकि मेरे पडोसी मेरे साथ अच्छा व्यवहार करते थे और वे मुझे अपने साथ ले गये थे किंतु मैं इसलिये नहीं गया था कि मैं बचाया जाउं। इसलिये, मैंने एक लंबा संघर्ष किया जो लगभग सात साल चला जब मैं पूर्ण रूप से २८ सितंबर, १९६१ को सच्चे रूप में परिवर्तित हुआ, उस समय मैंने डॉ. चाल्र्स जे. वुडबिज को बायोला कॉलेज में प्रचार करते हुये सुना जो (अब बायोला युनिवर्सिटी) कहलाती है। यह वह दिन था जब मैंने प्रभु यीशु पर विश्वास किया, और उन्होंने मुझे शुद्ध किया और मुझे मेरे पापों से बचा लिया।
आज आपकी क्या हालत है? क्या आप चर्च इसलिये आते है क्योंकि आप अकेले हैं - या आपके माता पिता बचपन से आपको चर्च लाते रहे? अगर आप आज भी केवल अपनी आदत के वशीभूत होकर, कि बचपन से ही चर्च जाते रहे हैं इसलिये चर्च आ रहे हैं तो आप परिवर्तित नहीं हुये हैं आपने मन नही फिराया है। या आप मेरे समान इसलिये आये हैं क्योंकि आप अकेले थे और जो भी आपको चर्च लेकर आये, उनके संबंध आपके साथ अच्छे थे? अगर आप इसलिये आये हैं, तो भी इसका यह अर्थ नहीं है कि आपने मन फिराया है। मुझे गलत मत समझना। मैं खुश हूं आप यहां आये हुये हैं - चाहे बचपन से चर्च आते रहे हैं इसलिये आये हैं, या अकेलेपन के कारण आये हैं, जैसा मैं था में उस समय तेरह साल का लडका था। ये सब कारण चर्च आने के लिये पर्याप्त हो सकते हैं किंतु फिर - भी ये कारण आपका मन परिवर्तित नहीं करते। आपको सच्चे रूप में मन फिराना आवश्यक है तभी आप बचाये जायेंगे। आपका वास्तव में प्रभु यीशु द्वारा बचाया जाना आवश्यक है। यह वह ''सही'' कारण है - जो आपको पाप के जीवन से बचायेगा।
अगर आप आदत होने के कारण भी चर्च आते हैं या आप अकेले है इसलिये चर्च आते हैं तो इसमें बुराई कुछ भी नहीं है। किंतु यह चर्च आने का सच्चा कारण नहीं है। आपको परिवर्तित होने के लिये कुछ ओर अधिक करना होगा, मात्र सिर्फ आप इसलिये चर्च आ रहे हैं क्योंकि आपको चर्च आने से अच्छा लगता है।
२. दूसरा, आप जानना आरंभ करते हैं कि वास्तव में एक सच्चा परमेश्वर है।
आप यह तो महसूस करते ही होंगे कि आपके चर्च आने से पहले भी परमेश्वर था। जब कि किसी ने सुसमाचार नहीं सुना हो तब तक लोगों के सामने ईश्वर के प्रति धुंधला, अस्पष्ट सा विश्वास रहता है। आपके साथ भी शायद ऐसा हो सकता है, अगर आप को यहां कोई लेकर आया है तो।
अगर आप पहले से ही माता पिता के कारण चर्च आते रहें हैं तो आप धर्मशास्त्र के बारे में भी बहुत कुछ जानते होंगे। आप जल्दी से बाईबल खोलकर निर्धारित पद खोल लेते होंगे। आपको उद्धार प्राप्त करने की योजना के विषय में अच्छी जानकारी हो सकती है। आपको बाईबल के खूब सारे पद और गीत आते होंगे। परन्तु इसके उपरांत भी परमेश्वर आपके लिये अवास्तविक और अस्पष्ट बना रहता है।
तो, चाहे आप नये जन के रूप में या चर्च बचपन से आने के कारण आते रहे हैं; एक बात तो स्पष्ट है कि कुछ प्रकिृया होना तो आरंभ होती है। आप वास्तव में मानना प्रारंभ कर देते हैं कि वास्तव में परमेश्वर है - परमेश्वर के बारे में आप केवल बात ही नहीं करते रहते हैं। किंतु परमेश्वर आपके लिये एक सच्चा व्यक्ति भी हो जाता है।
मैं जब छोटा बालक था तो मेरे दिमाग में, परमेश्वर के प्रति अस्पष्ट सा विश्वास था। मैं तो बाईबल में वर्णित ''उस महान और सामर्थवान परमेश्वर'' के विषय में जानता भी नहीं था (नहेमायाह १:५) तब तक मैं पंद्रह साल का बालक हो गया था − मेरे पडोसी मुझे उसी लडकपन की उम्र में चर्च लेकर गये थे। जिस दिन मेरी दादी का देहान्त हुआ मैं कब्रस्तान में पेडो के झुंड के पास भागकर रो रहा था मैं हांफ रहा था और पसीना मैदान पर गिर रहा था। अचानक परमेश्वर मेरे पास नीचे उतर आये - और मैं जानता था कि वह सच्चे परमेश्वर हैं और वह सर्वशक्तिमान हैं, यद्यपि भयानक और अदभुत भी है, अपनी पवित्रता में। उस समय भी मैं परिवर्तित नहीं हुआ।
क्या आपको भी कभी ऐसा अनुभव हुआ है? क्या बाईबल का ईश्वर आपको कभी सच्चा परमेश्वर प्रतीत हुआ? ऐसा होना बहुत महत्वपूर्ण है। बाईबल कहती है,
और विश्वास बिना उसे प्रसन्न करना अनहोना है, क्योंकि परमेश्वर के पास आने वाले को विश्वास करना चाहिए (कि वह है)। (इब्रानियों ११:६)
परमेश्वर में विश्वास के लिये थोडा भरोसा उनकी सत्ता में होना आवश्यक है - किंतु यह तौभी यह बचाने वाला विश्वास नहीं कहलाता है। यह परिवर्तन नहीं है। मेरी मां अक्सर कहती थी, ''मैं हमेशा परमेश्वर मं विश्वास रखती हूं।'' और इसमें कोई संदेह नहीं कि वह विश्वास रखती थी। उनके बचपन से ही वह परमेश्वर में विश्वास रखती थी। किंतु तौभी ८० वर्ष की होने के उपरांत भी उसने मन नहीं फिराया था। यह तो आवश्यक था ही कि वह परमेश्वर पर विश्वास रखे, किंतु एक व्यक्ति के वास्तविक रूप में परिवर्तन के लिये कुछ और अधिक होना अत्यंत आवश्यक है।
तो, मैं कह रहा हूं, कि आप शायद आज सुबह बिना परमेश्वर की सच्चाई जाने आये हैं। किंतु, शायद धीमे धीमे, शायद अधिक जल्दी से, आप देखेंगे कि एक सच्चा ईश्वर है। यह दूसरा स्तर कहलाता है, परन्तु तौभी यह परिवर्तन नहीं कहलायेगा।
३. तीसरा, आप यह महसूस करते हैं कि अपने पाप से परमेश्वर को नाराज किया है।
बाईबल कहती है, ''जो देह में हैं (अर्थात जो अभी तक अपरिवर्तित हैं) परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते'' (रोमियों ८:८) तो एक अपरिवर्तित जन के रूप में, आप यह महसूस करना प्रारंभ करते हैं, कि परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिये आप कुछ नहीं कर सकते। वास्तव में, आप यह मानना आरंभ कर देते हैं कि आप पापी हैं। प्रत्येक दिन ''पर अपनी कठोरता और हठीले मन के अनुसार उसके क्रोध के दिन के लिये'' (रोमियों २:५) बाईबल कहती है:
''परमेश्वर धर्मी और न्यायी है, वरन ऐसा ईश्वर है जो प्रति दिन क्रोध करता है'' (भजन ७:११)
जब आप यह जान लेते हैं कि वास्तव में एक परमेश्वर है, तो आपको यह महसूस होने लगता है कि आपने आपके पाप द्वारा परमेश्वर को नाराज किया है। आपने परमेश्वर को प्रेम नहीं करने के द्वारा भी नाराज किया है। जो पाप आपने किये वे परमेश्वर और उसकी आज्ञा के विरूद्ध किये। यह आपको बहुत स्पष्ट हो जायेगा कि यह सत्य है। परमेश्वर के प्रति आपके प्रेम की कमी आपके द्वारा एक विशाल पाप के रूप में देखी जायेगी। किंतु, इससे भी बढकर, आप यह देखना प्रारंभ करोगे कि आपका तो स्वभाव ही पापमयी है, और आपके अंदर कुछ भी अच्छा नहीं है, आपका तो मन ही पाप से भरा हुआ है।
इस स्तर को अक्सर प्राचीन लोग ''जागृति'' की दशा कहते हैं। किंतु अपने पापों के प्रति बडे तीव्र बोध और आत्म धिक्कारन के बिना कोई जागृति नहीं आ सकती। आपको ऐसा लगेगा जैसा जॉन न्यूटन ने महसूस किया था जब उसने लिखा:
ओ प्रभु, मैं कितना निकम्मा हूं, अपवित्र और अशुद्ध!
मैं पाप के बोझ के साथ कैसे उंचे उडने का साहस कर सकता हूं?
क्या इस अशुद्ध मन में तुम रह सकते हो प्रभु?
व्याप्त है, सच में! हर भाग में, कौन सी बुराइयां मैं देख पाता हूं!
(''ओ प्रभु, मैं कितना निकम्मा हूं'' जॉन न्यूटन, १७२५-१८०७)
आप गहराई से सोचना प्रारंभ करेंगे, तब; आपको अपने दिमाग और मन की पापमय दशा का अनुभव होगा। आप सोचेंगे, ''मेरा मन तो बहुत पापी है, और परमेश्वर से बहुत दूर है।'' यह विचार आपको परेशान कर देगा। आप बहुत उदास हो जायेंगे और अपने स्वयं के पापमय विचारों और ईश्वर के प्रति स्वयं की तरफ से प्रेम में कमी होने से आपको तकलीफ होगी। ईश्वर के प्रति आपके मन में उत्पन्न ढंडेपन से आपको गहराई से दुख होने की अवस्था आयेगी। तब आप यह महसूस करना आरंभ करेंगे कि आपके जैसे पापी मन के व्यक्ति के लिये कोई आशा नहीं है। आप यह भी देखना आरंभ करेंगे कि तब तो यह जरूरी और उचित है कि परमेश्वर आपको नरक में भेजे - क्योंकि आप नरक के लायक हैं। यह तब आपके दिमाग में आता है जब आप सच्चे रूप में जाग्रत हो जाते हैं कि आपने अपने पाप द्वारा परमेश्वर को नाराज किया है। जागृति की यह अवस्था आना एक महत्वपूर्ण दशा है, किंतु तौभी यह परिवर्तन नहीं कहलायेगी। पाप का तीव्र बोध होने से आगे जाना परिवर्तन कहलाता है। जैसे एक व्यक्ति जो स्वयं को पापमय दशा में देखता है जाग्रत अवस्था में आ जाता हैं − किंतु तौभी वह परिवर्तित नहीं कहलाता है। पाप का बोध होने से कहीं आगे परिवर्तित होने की दशा आती है।
आप को एकाएक लगने लगेगा कि आपने परमेश्वर को अप्रसन्न किया है, या ऐसा अहसास आपके भीतर मात्र किसी सिद्धांत की समझ से भी पैदा हो सकता है। कि आपने परमेश्वर को नाराज किया है और वह आपसे बेहद अप्रसन्न है। इस तरह अपने पापमयी और अपवित्र दशा के प्रति जागृत होने से भी आप परिवर्तन की चौथी और पांचवी ''दशा'' के लिये तैयार हो जाते हों।
चाल्र्स स्पर्जन अपने पाप के प्रति १५ साल की उम्र में जागृत हो गये थे। उनके पिता और दादा दोनों प्रचारक थे। वे उस जमाने में रहते थे जब आधुनिक ''निर्णयवाद'' जैसी बातों ने सच्चे परिवर्तन को धुंधला और अस्पष्ट नहीं बनाया था। इसलिये, उसके पिता और दादा ने उन्हें ''दबाव'' डालकर ''मसीह के लिये निर्णय'' लेना जो सतही निर्णय कहलाता इस गलती को नहीं होने दिया। इसके स्थान पर, उन्होंने परमेश्वर की राह देखी कि परमेश्वर उनके भीतर मन फिराव का कार्य करें। मैं सोचता हूं यह सही तरीका था।
जब स्पर्जन पंद्रह वर्ष के थे वे पाप के प्रति गहरे बोध से भर गये। स्पर्जन ने अपनी पापी दशा के प्रति आत्म जागृति को इन शब्दों से समझाया:
अचानक, मुझे मूसा मिला, जो परमेश्वर के नियमों की तख्तियां हाथ में लिये जा रहा था, और उसने मेरी ओर देखा, उसकी दहकती हुई आंखों से उसने मुझे पूर्ण रूप से खोजा। उसने (मुझे पढ़ने के लिये) कहा मुझसे पढवाये ‘परमेश्वर के दस शब्द’ − दस आज्ञायें − और जैसे जैसे मैं उन्हें पढता गया वे सब आज्ञा मिलकर मुझे पवित्र परमेश्वर की निगाहों में दोषी ठहराने लगीं।
स्पर्जन ने, अपने इस अनुभव में पाया, कि वह परमेश्वर की निगाहों में पापी ठहरे, और किसी भी प्रकार का ''धर्म'' और ''भलाई'' उन्हें बचा नहीं सकती थी। कम उम्र के स्पर्जन बहुत गहरी वेदना से होकर गुजरे। उन्होंने अपने प्रयासों से परमेश्वर के प्रति शांति प्राप्त करने की चेष्टा की, किंतु परमेश्वर के साथ मेल मिलाप और शांति बनाये रखने के उनके सारे प्रयास विफल हुये। यह दशा परिवर्तन के चौथे स्तर पर ले जाती है।
४. चौथा, आप अपना उद्धार स्वयं के प्रयासों से करने की कोशिश करते हैं, या बचाया जाना सीखते हैं।
जागा हुआ मनुष्य पापी दशा को महसूस करेगा, किंतु वह अभी भी प्रभु यीशु के पास नहीं लौटा है। भविष्यवक्ता यशायाह ने लोगों की इस दशा का वर्णन करते हुये कहा, ''हमने उससे अपना मुख फेर लिया....हमने उसका मोल न जाना'' (यशायाह ५३:३) हम आदम के समान हैं, जो जानता था कि वह पापी था, किंतु वह परमेश्वर से छिप गया, और स्वयं को पेड के पत्तों से छिपा लिया (उत्पत्ति ३:७, ८)।
आदम के समान, जागृत अवस्था वाला पापी स्वयं को पाप से बचाने के लिये कुछ प्रयास करता है। वह बचाया जाना ''सीखता'' है। किंतु यह ''सीखना'' भी उसका कुछ भला नहीं करता क्योंकि उसकी दशा ऐसी होती है जैसे पौलुस उन स्त्रियों के लिये कहता है, ''हमेशा सीखती तो रहती है किंतु कभी सत्य को नहीं जानती'' (२ तिमुथयुस ३:७) कुछ लोग यीशु मे खोने के बजाय इस प्रकार की ''भावना'' में खो जाते हैं। कुछ लोग जो इस प्रकार की ''भावना'' में खो जाते हैं उसमें उनको महीने लग जाते हैं; क्योंकि कोई भी कभी इस ''भावना'' से नहीं बचा है। स्पर्जन अपने पाप के प्रति जागृत हो चुका था। किंतु वह विश्वास नहीं कर सका कि वह साधारण रूप से प्रभु यीशु पर भरोसा रखने से ही बच सकता है। उसने लिखा था,
इसके पहले कि मैं मसीह के पास आता, मैंने अपने आप से कहा, ''यह निश्चत ही नहीं हो सकता, अगर मैं प्रभु यीशु में विश्वास रखूं; तो मैं जैसा हूं, वैसा ही बचा लिया जाउंगा? मुझे कुछ महसूस करना चाहिये, मुझे कुछ करना आवश्यक है'' (उक्त संदर्भित)
और यह आपको पांचवी दशा या स्तर तक ले जाता है।
५. पांचवा, आप अंतत: यीशु के पास आते हो, और केवल उसी पर भरोसा रखते हो।
जवान स्पर्जन ने अंतत: प्रचारक को यह कहते हुये सुना, ''मसीह की ओर देखो....अपनी तरफ देखते रहने का कोई फायदा नहीं है.....मसीह की ओर देखो।'' तमाम प्रकार के अपने संघर्ष और अंर्तद्वंद व दर्द के उपरांत - स्पर्जन ने अंतत: प्रभु यीशु की ओर देखा और उस पर विश्वास किया। स्पर्जन ने कहा, ''मैं (यीशु) के लहू से बचाया गया! मैं तो घर आते समय पूरे रास्ते नाचता आया।''
इस संघर्ष और संदेह के उपरांत, उसने ऐसी किसी भी भावना को खोजना बंद कर दिया, और किसी भी शांति देने वाली चीज की तलाश करना बंद किया। उसने साधारण रूप से प्रभु यीशु पर विश्वास किया - और उसी समय यीशु ने उन्हे बचा लिया। इतने कम समय में वह प्रभु यीशु के लहू से शुद्ध किया गया! कितनी साधारण सी बात है, और उसके उपरांत यह बडा गहरा अनुभव है जो एक मनुष्य प्राप्त कर सकता है। यह, मेरे मित्रों, सच्चा परिवर्तन है! बाईबल कहती है, ''प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करो, तो तुम बचोगे'' (प्रेरितों के कार्य १६:३१) । युसुफ हार्ट ने कहा था,
जिस क्षण एक पापी विश्वास करता है,
क्रूसित परमेश्वर पर भरोसा रखता है,
उस घडी वह क्षमा प्राप्त करता है,
उस के लहू के द्वारा पूर्ण छुटकारा।
(''दि मूमेंट ए सिनर बिलीव्स'' जोसेफ हार्ट, १७१२-१७६८)
निष्कर्ष
प्रभु यीशु ने कहा,
''और कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, यदि तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे।'' (मत्ती १८:३)
पिलगिम प्राग्रेस के मुख्य पात्र के समान, ''मसीह के लिये सतही निर्णय'' पर अपना निर्णय आधारित मत करो। नहीं! नहीं! बिल्कुल पक्का करो कि आपका परिवर्तन सच्चा है कि नहीं, क्योंकि अगर आप सचमुच में परिवर्तित नहीं हुये हैं, ''तो आप स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे'' (मत्ती १८:३)
सच्चे परिवर्तन के लिये क्या आवश्यक है
१. आपको सच्चा विश्वास करने के स्थान तक पहुंचना जरूरी है कि वास्तव में एक परमेश्वर है - एक सच्चा परमेश्वर जो पापियो को दंडित कर नर्क भेजता है, और जो बचाये जाते हैं उन्हें उनके मरने पर स्वर्ग ले जाता है।
२. आपको जानना आवश्यक है, अंदर मन की गहराई से, कि आप पापी हैं जिसने परमेश्वर को बहुत अधिक नाराज किया है। आप इस अवस्था में लंबे समय तक बने रह सकते हैं (या फिर कम समय भी यह दशा रह सकती है)। डॉ.कैगन, हमारे सहयोगी पास्टर, ने कहा था, ''मैं कई महिनों तक सोया नहीं और द्वंद में फंसा रहा जब तक कि परमेश्वर मेरे लिये वास्तविक नहीं बन गया। मैं अपने जीवन के दो साल का वर्णन इस प्रकार कर सकता हूं कि जैसे मैंने दो साल मानसिक यातना में गुजारे'' (सी.एल.कैगन. पी.एच.डी. फ्राम डार्विन टू डिजाईन, वाइटेकर हाउस, २००६, पेज ४१)
३. आप को जानना चाहिये कि नाराज और कुपित परमेष्वर को प्रसन्न करने के लिये आप ऐसा कुछ भला कार्य नहीं कर सकते। आपका कुछ भी कहना, सीखना, या करना, या महसूस करना भी आपकी सहायता नहीं कर सकता। यह आपके मन व दिमाग में साफ हो जाना चाहिये।
४. आप को यीशु के पास आना आवष्यक है, जो परमेश्वर का पुत्र है, एवं उसके लहू से अपने पापों को साफ करना चाहिये। डॉ.कैगन ने कहा, मुझे बिल्कुल ठीक ठीक वे सेकेंडस याद हैं, जब एकाएक मैंने (यीशु) पर विश्वास किया....... ऐसा लगा एकाएक मैं (यीशु) के दर्षन कर रहा हूं....... मैं बिल्कुल यीशु मसीह की उपस्थिति में था और बिल्कुल वे भी मेरे लिये उपलब्ध थे। कई वर्षों तक मैं प्रभु यीशु मसीह की उपस्थति से विमुख रहा, यद्यपि वे हमेशा मेरे लिये विद्यमान थे, बडे प्रेम से मुझे मेरे उद्धार का संदेश भेज रहे थे। किंतु उस रात मैं जानता था कि मेरे लिये उनके उपर विश्वास लाने का समय आ पहुंचा था। मैं जानता था कि या तो मुझे उनके पास आ जाना चाहिये या फिर उनसे दूर चले जाना चाहिये। उसी घडी, कुछ सेकेंडस में ही, मैं यीशु के पास आ गया। अब मैं स्वयं पर भरोसा रखने वाला अविश्वासी नहीं रहा। मैं प्रभु यीशु पर विश्वास कर चुका था। मैं उन पर भरोसा जतला चुका था। यह तो बडी ही सरल बात थी....जिससे मैं पूरे जीवन भर भागता रहा, किंतु उस रात मैंने मन फिराया और सीधे व एकाएक ही प्रभु यीशु के पास आ गया'' (सी.एल.कैगन, उक्त संदर्भित, पेज १९) यह कहलाता है सच्चा परिवर्तन। इसका अनुभव आपको होना चाहिये कि आप प्रभु यीशु के पास आ चुके हैं और परिवर्तित हो चुके हैं! यीशु के पास आइये और उस पर भरोसा रखिये! वह आपको बचायेगा और क्रूस पर बहाये अपने लहू द्वारा आपके सारे पापों को धो देगा! आमीन!
(संदेश का अंत)
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संदेश के पूर्व ऐबेल प्रुद्योमे द्वारा प्रार्थना की गई।
संदेश के पूर्व बैंजामिन किन्केड गिफिथ द्वारा एकल गीत गाया गया:
“ अमेजिंग गे्रस'' (जान न्यूटन, १७२५−१८०७)
रूपरेखा सच्चा परिवर्तन − २०१५ संस्करण REAL CONVERSION – 2015 EDITION by Dr. R. L. Hymers, Jr. “और कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, यदि तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे।” (मत्ती १८:३) १. प्रथम, आप किसी और कारण से चर्च आते हैं और आपका परिवर्तन हो जाता है। २. दूसरा, आप जानना आरंभ करते हैं कि वास्तव में एक सच्चा परमेश्वर है, नहेमायाह १:५; इब्रानियों ११:६
३. तीसरा, आप यह महसूस करते हैं कि अपने पाप से परमेश्वर को नाराज ४. चौथा, आप अपना उद्धार स्वयं के प्रयासों से करने की कोशिश करते ५. पांचवा, आप अंतत: यीशु के पास आते हो, और केवल उसी पर |